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राजनीति में भाषा का गिरता स्तर

  • Writer: MOBASSHIR AHMAD
    MOBASSHIR AHMAD
  • May 23
  • 4 min read
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संदीप हुजन


लोकतंत्र का आधार है विचारों का स्वतंत्र और सम्मानजनक आदान-प्रदान। जब राजनीतिक भाषा अपमानजनक और भड़काऊ हो जाती है तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करती है। लोग तथ्यों और नीतियों पर चर्चा करने के बजाय व्यक्तिगत हमलों और भावनात्मक मुद्दों में उलझ जाते हैं। इससे जनता का ध्यान महत्वपूर्ण मुद्दों से हट जाता है। आक्रामक और भड़काऊ भाषा समाज में विभाजन को बढ़ावा देती है। जब नेता धर्म, जाति, क्षेत्र या अन्य आधारों पर भड़काऊ बयान देते हैं तो यह सामाजिक समूहों के बीच अविश्वास और तनाव को जन्म देता है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में यह विशेष रूप से खतरनाक है, क्योंकि यह सामाजिक एकता को खतरे में डाल सकता है। भड़काऊ भाषा का सबसे गंभीर परिणाम है हिंसा को बढ़ावा देना। इतिहास में कई उदाहरण है, जहां नेताओं के भड़काऊ बयानों के कारण देंगे, हिंसा और सामाजिक अशांति फैली है। आज के डिजिटल युग में, सोशल मीडिया के माध्यम से ऐसी भाषा तेजी से फैलती है और इसके परिणामस्वरूप हिंसक घटनाएं बढ़ रही हैं। राजनीति समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है,


जो न केवल नीतियों और प्रशासन को आकार देती है, बल्कि सामाजिक मूल्यों, संस्कृति और नैतिकता को भी प्रभावित करती है। राजनीति में भाषा का उपयोग नेताओं और जनता के बीच संवाद का प्रमुख माध्यम है। यह भाषा न केवल विचारों को व्यक्त करती है, बल्कि समाज में वैचारिक और भावनात्मक प्रभाव भी डालती है. हाल के वर्षों में राजनीतिक भाषा का स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। व्यक्तिगत हमले, अपमानजनक टिप्पणियां, भड़काऊ बयान और असभ्य भाषा का उपयोग अब आम बात हो गई है। यह प्रवृत्ति न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर कर रही है बल्कि समाज में विभाजन, हिंसा और अविश्वास को भी बढ़ावा दे रही है।

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आधुनिक युग में मीडिया और सोशल मीडिया ने राजनीतिक संवाद को नया रूप दिया है। ट्विटर, फेसबुक और अन्य डिजिटाल मंचों ने नेताओं को जनता से सीधे जुड़ने का अवसर प्रदान किया है। हालांकि, इन मंचों पर संक्षिप्त और आकर्षक संदेशों की मांग ने भाषा को सनसनीखेज और आक्रामक बना दिया है। नेताओं द्वारा की गई छोटी-छोटी टिप्पणियां या मीम्स अक्सर व्यक्तिगत हमलों या अपमानजनक भाषा का रूप ले लेते हैं। इसके अलावा, न्यूज चैनलों की प्रतिस्पर्धा ने भी भड़काऊ और अतिशयोक्तिपूर्ण बयानों को बढ़ावा दिया है, क्योंकि यह अधिक दर्शकों को आकर्षित करता है।


भारत सहित विश्व के कई देशों में राजनीतिक ध्रुवीकरण अपने चरम पर है। विभिन्न विचारधाराओं और दलों के बीच बढ़ती खाई ने संवाद को कटु बना दिया है। नेताओं के बीच विचार-विमर्श के बजाय एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना आम हो गया है। इस ध्रुवीकरण ने भाषा को न केवल आक्रामक बनाया है बल्कि इसे वैचारिक हिंसा का हथियार भी बना दिया है। आज के दौर में कई नेता पॉपुलिस्ट रणनीतियों का सहारा लेते हैं जिसमें वे जनता की भावनाओं को भड़काने के लिए सरल और आक्रामक भाषा का उपयोग करते हैं। यह भाषा अक्सर तथ्यों और तकों से परे होती है और केवल भावनात्मक उत्तेजना पैदा करने पर केंद्रित होती है। जनता भी ऐसी भाषा को तुरंत स्वीकार कर लेती है, क्योंकि वह उनकी निराशा और गुस्से को प्रतिबिंबित करती है।


पहले के समय में राजनीतिक नेताओं के बीच एक निश्चित स्तर की गरिमा और शालीनता देखी जाती थी। आज वो स्थिति नदारद है। आज कई नेता व्यक्तिगत हमालों और अपमानजनक भाषा का सहारा लेते हैं, क्योंकि वे इसे अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का आसान तरीका मानते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल नेताओं के बीच, बल्कि उनके समर्थकों और जनता में भी फैल रही है। राजनीतिक भाषा का स्तर गिरने का एक कारण यह भी है कि जनता में तथ्य-आधारित और तार्किक संवाद की मांग कम हो रही है। कई बार लोग बिना सोचे-समझे नेताओं की आक्रामक और अपमानजनक भाषा का समर्थन करते हैं। शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण जनता ऐसी भाषा को सामान्य मानने लगती है।

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राजनीतिक भाषा का गिरता स्तर नई पीढ़ी के लिए एक गलत उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है। जब बच्चे और युवा, नेताओं को अपमानजनक और आक्रामक भाषा का उपयोग करते देखते हैं, तो वे इसे सामान्य मानने लगे हैं। इससे समाज में नैतिकता, सम्मान और शालीनता जैसे मूल्यों का हास हो रहा है। आज राजनीतिक भाषा विश्वसनीयता और तथ्यों से दूर हो रही है। राजनीतिक नेताओं को अपनी भाषा के प्रति जवाबदेह बनाना आवश्यक है। इसके लिए कानूनी और नैतिक दिशानिर्देश बनाए जाने चाहिए, जो अपमानजनक और भड़काऊ भाषा के उपयोग को प्रतिबंधित करें। साथ ही, जनता को भी नेताओं से शालीन और तथ्य-आधारित संवाद को अपेक्षा करनी चाहिए। मीडिया को भड़काऊ और सनसनीखेज बयानों को बढ़ावा देने के बजाय तथ्य आधारित और संतुलित पत्रकारिता पर ध्यान देना चाहिए। न्यूज चैनलों और डिजिटल मंचों को ऐसी सामग्री को प्राथमिकता देनी चाहिए, जो विचार विमर्श और संवाद को बढ़ावा दे।


सोशल मीडिया को भड़काऊ और अपमानजनक सामग्री के प्रसार को रोकने के लिए सख्त नीतियां लागू करनी चाहिए। साथ ही, नेताओं और प्रभावशाली व्यक्तियों के खातों की निगरानी करनी चाहिए ताकि वे गलत सूचना या हिंसा को बढ़ावा न दे सकें। राजनीतिक दलों और नेताओं को सकारात्मक उदाहरण स्थापित करने की आवश्यकता है। वे नीतियों और विचारों पर आधारित स्वस्थ बहस को बढ़ावा दे सकते हैं। साथ ही, जनता को भी ऐसी भाषा और नेताओं का समर्थन करना चाहिए, जो सम्मान और गरिमा को बनाए रखें।


राजनीति में गिरता भाषा का स्तर न केवल लोकतंत्र के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है। यह प्रवृत्ति सामाजिक एकता, नैतिकता और लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर कर रही है। हालांकि, यह समस्या असाध्य नहीं है। नेताओं, मीडिया, जनता और संस्थानों के संयुक्त प्रयासों से इस प्रवृत्ति को रोका जा सकता है। हमें एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति की ओर बढ़ना होगा, जो सम्मान, तथ्य और विचार-विमर्श पर आधारित हो। केवल तभी हम एक स्वस्थ और समावेशी लोकतंत्र का निर्माण कर सकते हैं जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बने।


(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और स्तम्भकार हैं)

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