तीसरे महायुद्ध से कितने पास कितने दूर
- MOBASSHIR AHMAD
- Dec 1, 2024
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अंकुर सिंह
दुनिया क्या तीसरे विश्व युद्ध की ओर बढ़ने लगी है? यह सवाल इसलिए पूछा जाने लगा है, क्योंकि यूरोप और पश्चिम एशिया के संघर्ष थमने का नाम नहीं ले रहे। यूरोप में तकरीबन ढाई साल से रूस और यूक्रेन में जंग चल रही है। रूस महाशक्ति है और उसके पास मानव संहारक हथियारों का जखीरा है, जबकि यूक्रेन के साथ अमेरिकी फौज मैदान में तो नहीं है, लेकिन उसे इस महाशक्ति और नाटो से भरपूर मदद मिल रही है। उधर, पश्चिम एशिया में इजरायल और हमास के बीच चल रहा संघर्ष भी लगातार मारक होता जा रहा है। यह युद्ध एक साल से जारी है और इसके विस्तार की आशंका लगातार बनी हुई है। लेबनान पर इजरायल का ताजा हमला इस डर को और बढ़ाता है।
तीसरे महासमर की आशंका जताने वाले लोग इसकी वजह भी बताते हैं। उनके मुताबिक, यूरोपीय देशों ने रूस को किनारे करने की ठान ली है। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का सहारा लिया जा रहा है। चूंकि पहला वार रूस ने किया, इसलिए उस पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। उन्हें डर यह है कि कहीं रूस पर दबाव इतना न बढ़ जाए कि वह परमाणु हथियार चलाने को तैयार हो जाए। उसने दो बार यह धमकी दी भी है।
यहां शीत युद्ध का दौर भी याद किया जा रहा है। हालांकि, यह दो महाशक्तियों (सोवियत संघ और अमेरिका) के बीच का वैचारिक टकराव था, जो 1990 तक चला, जब तक कि सोवियत संघ का विघटन नहीं हो गया। सोवियत संघ की साम्यवादी सोच थी, जबकि अमेरिका पूंजीवाद की वकालत कर रहा था। दोनों महाशक्तियां अन्य देशों की मदद करके उनको अपने पाले में रखना चाहती थीं, जिसके कारण उनमें संघर्ष होता था। हालांकि, इस तनाव के बावजूद दोनों इस पर सहमत रहे कि संघर्ष जुबानी ही हो, हथियार उठाने की नौबत न आए। इसीलिए उन्होंने यह आपसी समझ बना ली थी कि पूर्वी यूरोप सोवियत संघ, तो लातीन अमेरिकी देश, अमेरिका के प्रभाव में रहेंगे। इसका यह अर्थ भी है कि जब वैश्विक व्यवस्था दो ध्रुवीय होती है और दोनों एक- दूसरे को बराबर समझते हैं, तो अमन कायम रहता है। संघर्ष तो तब बढ़ता है, जब वैश्विक व्यवस्था बहुध्रुवीय हो जाती है।
मौजूदा हालात की वजह यही है। दरअसल, बहुध्रुवीय व्यवस्था में वर्चस्व की लड़ाई अधिक होती है, जिससे तनाव बढ़ता है। 1990 में शीत युद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका एकमात्र ताकतवर राष्ट्र था, लेकिन दुनिया में कभी कोई एक महाशक्ति नहीं रहती। नतीजतन, पहले रूस और फिर चीन का उदय हुआ। बाद के वर्षों में भारत, जर्मनी और फ्रांस जैसे देश भी वैश्विक व्यवस्था में अपने लिए जगह बनाने लगे। इसी बीच यूरोपीय संघ भी बना। यानी, ऐसी बहुध्रुवीय दुनिया बनी, जिसमें सभी एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में जुट गए। ऐसे में, उनमें भला सहमति रहती भी तो कैसे?

तो, क्या हम महायुद्ध के मुहाने पर हैं? ऐसा नहीं कहा जा सकता। पहला विश्वयुद्ध इसलिए हुआ था, क्योंकि तब तक कोई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था हम नहीं बना सके थे। कई देश उपनिवेश थे और साम्राज्यवादी ताकतें एक-दूसरे के अधिकार-क्षेत्र में घुसना चाहती थीं। इस युद्ध की समाप्ति के बाद 'लीग ऑफ नेशंस' बनाया गया, लेकिन इसमें कई विसंगतियां थीं। फिर, जर्मनी जैसे देशों पर विजयी पश्चिमी राष्ट्रों ने तमाम तरह की कठोर संधियां थोप दीं, जिसके कारण वहां हिटलर जैसे शासक का उदय हुआ और दूसरे विश्व युद्ध की भूमिका तैयार हुई। आज ऐसी नौबत नहीं दिखती है। अब संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था है, जिसके 193 सदस्य देश हैं। अंतरराष्ट्रीय कोर्ट की तरह कई ऐसी इकाइयां हैं, जहां पर किसी देश की जिम्मेदारी तय की जा सकती है। आज का वैश्विक ढांचा हर हाल में युद्ध से बचना चाहता है।और, सबसे बड़ी बात, पहले जमीन के लिए युद्ध होते थे, जबकि आज भूमंडलीकृत दुनिया में आर्थिकी सबसे महत्वपूर्ण हो गई है। यही कारण है कि रूस ने भी कभी यूक्रेन पर कब्जा जमाने का दावा नहीं किया, बल्कि वह उसे नाटो में जाने से रोकना चाहता है।
आज सभी देशों के आर्थिक और रणनीतिक हित आपस में जुड़े हुए हैं। इसको भू-आर्थिकी कहकर परिभाषित किया जाता है। अमेरिका, चीन, भारत, रूस तमाम देशों की बड़ी-बड़ी कंपनियां किसी भौगोलिक दायरे में सिमटी नहीं हैं। उनका कामकाज दूसरे राष्ट्रों तक फैला हुआ है। उनके अपने आर्थिक हित हैं। इतना ही नहीं, आज यह हर कोई जानता है कि यदि महायुद्ध की शुरूआत हुई, तो विध्वंस दूसरे विश्व युद्ध से काफी ज्यादा भयानक होगा। अनुमान है कि विश्व की आधी से अधिक आबादी ऐसी जंग का शिकार बन सकती है। यही कारण है कि रूसी राष्ट्रपति भी परमाणु हमले की सिर्फ धमकी दे रहे हैं।
सवाल है, इन सबमें भारत कहां खड़ा है? आज बहुध्रुवीय व्यवस्था में भारत काफी मजबूत हैसियत में है। हम पहले आमतौर पर रूस के साथ खड़े होते थे या फिर तीसरी दुनिया के देशों के साथ। गुटनिरपेक्ष की भी वकालत किया करते थे। मगर पिछले दस पंद्रह साल में देश ने इतना आर्थिक विकास किया है कि विश्व स्तर पर हमारा कूटनीतिक रुतबा काफी बढ़ गया है। इसमें अमेरिका और चीन की तनातनी ने भी काफी मदद की है। हमें ऐसी उभरती आर्थिक ताकत माना जाता है, जो चीन के बरअक्स खड़ी हो सकती है और कई मामलों में हमने उसे पीछे भी छोड़ दिया है। इसे तुर्किये के उदाहरण से समझ सकते हैं। चूंकि तुर्किये की समुद्री सीमा रूस से मिलती है, इसलिए अमेरिका ने उसे नाटो में शामिल करके वहां मिसाइलें तैनात कर दीं, ताकि रूस पर दबाव बनाया जा सके। कुछइसी तरह की अपेक्षा पश्चिमी देश भारत से कर रहे हैं। आज हमें उनकी उतनी जरूरत नहीं है, जितनी उन्हें हमारी है।

मौजूदा वैश्विक तनाव में भारत को मध्यस्थ बनाने की बात भी इसीलिए की जा रही है। वैसे, इन संघर्षों का अंत हमारे हित में भी है, क्योंकि अपने तेज आर्थिक कदम हम रोकना नहीं चाहेंगे। अगर भारत ऐसी किसी मध्यस्थता को सफलतापूर्वक अंजाम देता है, तो हमारा कूटनीतिक कद और बढ़ जाएगा। आज वैश्विक शक्ति संतुलन चाहने वाले देश हमें उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं और अच्छी बात है कि हमारी सरकार इस दिशा में सधे हुए कदमों से आगे बढ़ भी रही है।
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