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पद्मश्री डिजर्व करते हैं किशनगंज के 'महानायक' श्यामानात झा

  • Writer: MOBASSHIR AHMAD
    MOBASSHIR AHMAD
  • Feb 17
  • 19 min read

रोशन झा


साल 1977 में मैं पहली बार नौकरी करने किशनगंज आया था। यह मेरी प्रथम नियुक्ति थी। जब मैं नौकरी ज्वाइन करने प्राथमिक विद्यालय कालादाही पहुंचा तो मैं यह देख कर अवाक था कि यहां तो कुछ है ही नहीं। ना जमीन था ना विद्यालय। पढ़‌ने वाले बच्चों का तो कोई अता-पता दूर-दूर तक ना था। एक तरह से आप कह सकते हैं कि कुछ भी नहीं था। उस समय किशनगंज जिले की स्थापना नहीं हुई थी, संयुक्त पूर्णिया जिला हुआ करता था। वहां आने के बाद हमारे लिए काफी चुनौतियां थी। मेरे आने से पहले भी यहां दो शिक्षकों की बहाली हो चुकी थी। कठिन चुनौतियों से परेशान होकर वे दोनों लोग बहुत जल्दी उस विद्यालय से नाम कटाकर चले गए। मुझे जब नियुक्ति पत्र दी गई तब समझ ही नहीं आया कि क्या करना चाहिए। रहना चाहिए या इस विद्यालय से ट्रांसफर लेकर चला जाना चाहिए। हिम्मत हारने के बदले मैंने संघर्ष का रास्ता चुना और मैंने सबसे पहले इस क्षेत्र में घूम-घूम कर लोगों से अपने बच्चों को स्कूल भेजने का आग्रह किया।


अररिया के श्यामानंद बाबू अर्थात सेवा निवृत प्रधानाध्यापक श्यामानंद झा अब किशनगंज के हो चुके हैं। वे किशनगंज में और किशनगंज शहर के लोग उनके दिल में बसते हैं। क्या बड़े और क्या छोटे, क्या हिंदू और क्या मुसलमान, सब के सब श्यामानंद बाबू को अपना आदर्श मानते हैं और उन्हें मान और सम्मान देते हैं। हमने जब किशनगंज के लोगों से पूछा कि यहां के किसी बड़े शख्सियत पर पत्रिका के लिए स्टोरी करना चाहते हैं तो सब ने जो पहला नाम सुझाया वे श्यामानंद बाबू का था। मजेदार बात यह थी कि चाय दुकानदार और गरीब रिक्शावाला भी उनके बारे में विस्तार पूर्वक सब कुछ जानता है और मेरे द्वारा पुछे जाने पर डिटेल में बता भी रहे हैं। टोकने पर उन लोगों का कहना था कि स्यामानंद बाबू को सिर्फ मैं ही नहीं, किशनगंज का बच्चा बच्चा जानता है। नौकरी से रिटायरमेंट के बाद कौन भला समाज और समाज में रह रहे गरीब लोगों को पढ़ाने लिखाने के लिए काम करता है। उसी चाय दुकानदार ने हमें उनका पता भी बता दिया। वहीं चाय दुकान पर बैठे एक अन्य आदमी का कहना था कि श्यामानंद झा जो किशनगंज के पहले व्यक्ति हैं जिन्हें राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित किया गया है।

किशनगंज शहर के वार्ड नंबर सात में मोती बाग नामक मोहल्ला स्थित है, यहीं पर एक नियोग कुंज 'अंजू सदन' नामक एक घर है, जहां श्यामानंद झा जी अपनी पत्नी और परिवार के अन्य लोगों के साथ रहते हैं। बातचीत का दौर शुरू होता है और श्यामानंद झा जी इतिहास के पन्नों को पलटने लगते हैं। हमको देखकर लगता ही नहीं है कि वे रिटायरमेंट के बाद का जीवन जी रहे हैं। उनके जज्बे और किशनगंज के प्रति प्रेम को देखकर लगता है कि यह आदमी तो सच में किशनगंज का रोल मॉडल है अर्थात असली हीरो है।


श्यामानंद झा जी बताते हैं की नौकरी ज्वाइन करने के बाद मेरी मुलाकात रफीक साहब से होती है जो कहते हैं कि श्यामानंद जी आप यहां से मत जाना। आप लोग जब उधर से आते हैं तो यहां का विकास होता है। मुझे भी लगा कि जहां दीपक पहले से जल रहा हो वहां दीपक जलाने से क्या फायदा, लेकिन यहां तो दूर-दूर तक अंधेरा पसरा हुआ है, अगर मैं एक दीपक जलाने में भी कामयाब होता हूं तो निसंदेह शिक्षा का प्रकाश फैलेगा। मुझे भी लगा कि यहां कुछ किया जा सकता है। किसी भी क्षेत्र में विकास करने के लिए अपॉर्चुनिटी, पॉसिविलिटी और कैपेसिटी अति आवश्यक है और यह मेरे दिमाग में था। बचपन में मुझे देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की एक किताब लाइब्रेरी में पढ़ने को मिला था। उसमें लिखा था कि आदमी भले छोटा-छोटा काम करें लेकिन उसका उद्देश्य अगर महान है तो यह आदमी बहुत अधिक महानता को प्राप्त कर सकता है।


डॉ राजेंद्र प्रसाद और डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम को अपना आदर्श बताते हुए श्यामानंद झा अपनी बातों को आगे बढ़ाते हैं और कहते हैं उस स्कूल से जाने के बदले मैंने वहां काम करना शुरू कर दिया। उस समय मैंने कई लोगों से मुलाकात कर अपने लक्ष्य को कैसे पूरा किया जाए इस बारे में बताया और सलाह मशवरा किया। मुजफर हसनैन साहब, अलता स्टेट, उस समय वहां के मुखिया हुआ करते थे।


इसी बीच मेरी मुलाकात हाई स्कूल के अमरकांत झाजी और रफीक साहब से होती है। मुझे इन लोगों ने यथासंभव अपना सहयोग दिया। उन लोगों के योगदान को मैं कभी नहीं भूल सकता। रफीक साहब तो हमेशा मेरे कामों को देखकर बड़ाई करते रहते थे और प्रोत्साहन दिया करते थे।


श्यामानंद झा जी डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि कभी कलाम साहब ने कहा था कि जिस स्थान पर दो रास्ते बने हुए हैं उसका स्वागत करो लेकिन एक नया रास्ता बनना चाहिए, इसके लिए भी प्रयास करते रहो। इसलिए मैं एजुकेशन के क्षेत्र में एक नया रास्ता बनाना चाहता था। आप कल्पना कर लीजिए, जिस जिले या क्षेत्र की शिक्षा दर काफी कम अर्थात ना के बराबर रही हो वहां शिक्षा का अलख जगाना कितना मुश्किल काम होता है। धीरे-धीरे लोग मेरी बातों को जानने लगे, मानने लगे और चार से पांच साल के अंदर ही धरातल पर परिवर्तन दिखने लगा।


बीते दिनों को याद करते हुए श्यामानंद झा जी कहते हैं कि बच्चों को पढ़ाने के लिए मैं अपना वेतन तक लगा दिया करता था। उस समय बिहार सरकार द्वारा मुझे 234 रुपए और 40 पैसे वेतन मिलता था। यह तब की बात है जब मेरा परिवार मेरे साथ नहीं रहता था। बिहार सरकार द्वारा स्कूल में ना तो ड्रेस दी जाती थी और ना पढ़ने और लिखने के लिए कॉपी, किताब, कलम। मैं अपने वेतन से ही जरूरतमंद बच्चों को कॉपी कलम खरीद कर देता था और कुछ गरीब मेधावी छात्रों को अपने साथ अपने घर पर रखकर पढ़ाता लिखाता था।


मेरे एक बड़े भाई है जो एक अच्छी कंपनी में मार्केटिंग सुपरवाइजर हुआ करते थे, उस समय वे ही परिवार चलाते थे, छोटे भाई को भी शिक्षक की नौकरी प्राप्त हो चुकी थी, मुझ पर पैसे घर भेजने का कोई दबाव न था, इसलिए मैं अपना वेतन स्वतंत्र रूप से बच्चों के ऊपर खर्च कर दिया करता था। 234 रुपए की तुलना करते हुए श्यामानंद झा जी कहते हैं कि आज के समय का 25 से ₹30000 रुपया इसे कहा जा सकता है


घर वालों ने मुझे पूरी छूट दे रखी थी कि तुम्हारे मन में जो आता है वह तुम कर सकते हो। गांव में हमारा परिवार एक जाना माना परिवार है। जमीन जायदाद भी कुल मिलाकर ठीक-ठाक है। पिताजी खुद सरकारी स्कूल में शिक्षक थे। यही कारण था कि घर के लोगों को शिक्षा का महत्व पत्ता था। पिता हम लोगों को छोड़कर बहुत पहले इस दुनिया से जा चुके थे लेकिन उन्होंने मां को कह रखा था कि कुछ भी हो जाए, बच्चों को पढ़ाना बंद मत करना। शिक्षा दिलाने के लिए अगर जमीन ज्यादाद भी बेचनी पड़े तो बेचने में संकोच मत करना।


स्कूल में 10 वर्षों तक ऐसा ही चलता रहा। इसके बाद मेरा परिवार भी मेरे साथ किशनगंज रहने आ गया। अब मेरे छोटे-छोटे बच्चे भी स्कूल जाने लायक हो गए थे। मैं उसी गांव में घर बनाया जहां मेरा स्कूल हुआ करता था। मैंने अपने बच्चों का एडमिशन भी उसी स्कूल में करवाया जहां मैं खुद पढ़ाया करता था। ऐसा नहीं था कि मेरे बच्चे पढ़ने के लिए दूसरे प्राइवेट स्कूल में जाते थे और मैं नौकरी करने के लिए सरकारी स्कूल में बच्चों को पढ़ाता था। मैं यह चाहता था कि लोगों को यह कहने का मौका ना मिले की श्यामानंद जी लोगों के बच्चों को सरकारी स्कूल आने के लिए मोटिवेट करते हैं और खुद अपने बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ने को भेजते हैं। उस समय भी मेरा स्कूल सिंगल टीचर स्कूल हुआ करता था। मेरे स्कूल से पढ़कर कई छात्र आज देश और विदेश में अपना नाम कर रहे हैं। समाज में अपने माता-पिता के साथ-साथ मेरा नाम भी रोशन कर रहे हैं। इनमें से कोई बैंक मैनेजर है तो कोई इंजीनियर या डॉक्टर।


बच्चों की सफलता देखकर मेरा भी उत्साह बढ़ता जा रहा था। लेकिन अभी भी मुस्लिम समाज के बच्चे स्कूल आने से हिचकिचा रहे थे। यह वह दौर था जब लड़कों को तो पढ़ाया जाता था लेकिन लड़कियों को पढ़ाया जाए इसके लिए माता-पिता किसी भी कीमत पर तैयार नहीं हुआ करते थे। पढ़ाई का महत्व समझाने के बाद भी लड़के भी बहुत मुश्किल से पढ़ाई करने स्कूल आते थे।


मैं छुट्टी के दिनों में घूम घूम कर लोगों से मिलता था उनके दलान-दरवाजे पर जाता था और बच्चों को स्कूल भेजने का आग्रह किया करता था। मीटिंग आयोजित कर में लोगों को समझाने का प्रयास करता था कि अगर हमारी बेटियां नहीं पढेगी तो हमारा समाज आगे बढ़ने के बदले पीछे रह जाएगा।


लड़कियों का काम सिर्फ चूल्हा फेंकना और बर्तन मांजना रह जाएगा। इसका परिणाम यह हुआ कि जिन बच्चों का घर मेरे स्कूल से दूर था वह अपने आसपास के स्कूलों में पढ़ने के लिए जाने लगे। सुखद बात यह रही कि कुछ ही महीनों के बाद लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में काफी अधिक होने लगी।


इन लड़कियों को पढ़ाने के अलावा कला और संस्कृति से भी जोड़ा गया। 15 अगस्त था 26 जनवरी के दिन स्कूल परिसर में आयोजित होने वाली कार्यक्रमों में इन लोगों से गीत गवाया जाता था और नृत्य करवाया जाता था। सभी बच्चे बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। बच्चों के अंदर की प्रविभा को देख उनके माता-पिता भी खुशी से झूम उठते थे। अब इस क्षेत्र के लड़के और लड़कियां दुर्गा पूजा और ईद के अवसर पर आयोजित होने वाली कार्यक्रम में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगे। यही कारण था कि हमारे स्कूल को बहुत जल्द एमसीएस बना दिया गया अर्थात मॉडल क्लस्टर स्कूल। भारत सरकार द्वारा यह मान्यता दी जाती है। एक तरह से कहा जाए तो हमारा स्कूल 10 स्कूलों का हेड बन चुका था और मुझे कला संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए इन सभी स्कूलों का हेड अर्थात प्रमुख बना दिया गया था।


कहीं पर किसी तरह के कार्यक्रम होने पर सभी स्कूलों के बच्चे शामिल हुआ करते थे लेकिन सबसे अधिक हमारे बच्चे फर्स्ट आते थे। उन्हें मंच पर पुरस्कार प्राप्त करने का मौका मिलता था। हिंदू मुस्लिम एकता पर श्यामानंद झा जी कहते हैं कि यहां के लोगों से मेरा संबंध इतना अधिक गहरा था कि मुझे कभी भी किसी तरह की परेशानी नहीं हुई। यहां का हिंदू समाज जिवना मुझे आदर और मान देते हैं उतना ही मुसलमान समाज के लोग मुझे प्यार और दुलार देते हैं। मैं सबके यहां आया जाया करता था। मेरा मानना है कि हमारा देश समरसता का देश है, जब तक हिंदू और मुसलमान समाज के लोग एक साथ देश को आगे बढ़ाने के लिए काम नहीं करेंगे तब तक भारत को विकसित राष्ट्र नहीं बनाया ज सकता है। अगर हम धर्म के नाम पर टूटे रहेंगे और बटे रहेंगे तो कोई भी हमारी कमजोरी का लाभ उठा सकता है।


स्कूल से रिटायरमेंट के बाद श्यामानंद झा जी गायत्री परिवार से जुड़ते हैं और अपने अभियान का लक्ष्य बताते हुए कहते हैं कि गायत्री परिवार का उद्देश्य है समूह का समर्थन करना। यही कारण था कि मैं जो भी प्रोग्राम बनाता था उसका विरोध ना तो हिंदू समाज के लोग करते थे और ना ही मुसलमान समाज के लोग। मेरी सफलता का कारण यह था कि हर कार्यक्रम में गांव के अधिकांश लोगों को शामिल होने के लिए न्योता दिया जाता था। यह वह दौर था जब आर्थिक सहयोग का अभाव था, लोगों की स्थिति भी उतनी अच्छी नहीं थी कि वह मदद कर सके। सभी इंतजाम मुझे खुद करना पड़ता था।


बात के दिनों में मैं विभिन्न तरह की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से जुड़कर काम करने लगा। इस दौरान मुझे यूनाइटेड नेशन से जुड़कर काम करने का मौका मिला। डब्लूएचओ और यूनिसेफ से जुड़ा हुआ था। इन सभी मंचों से मुझे काम करने का मौका मिला और सभी मंचों के द्वारा मुझे समय-समय पर सम्मानित भी किया गया। मुझे सिविल सोसाइटी अवार्ड भी मिल चुका है। शिक्षा क्षेत्र में बेहतर काम करने के लिए में किशनगंज जिले का पहला आदमी हूं जिसे राष्ट्रपति अवार्ड मिला है और देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों सम्मान प्राप्त करने का अवसर मिला। जिरा व्यक्ति को मैं भगवान मानता था उसी कलाम साहब से मिलने का मौका और उनके हाथों सम्मानित होने का अनुभव को मैं जीवन में कभी नहीं भूल सकता।


स्कूल में नौकरी ज्वाइन करना और राष्ट्रपति पुरस्कार तक का सफर तय करना मेरे लिए कोई आसान काम नहीं था। मैंने संघर्ष का रास्ता चुना था और संघर्ष का रास्ता आसान कैसे हो सकता है। मेरे कार्य शैली को देखकर लोग मुझे पागल तक कहने लगे थे। पीठ पीछे लोग बुराई करते थे। शिक्षक समाज के लोगों का भी कहना था कि पता नहीं दिनभर क्या करते रहते हैं। जब देखो किसी न किसी अभियान या काम में लगे रहते हैं। पागलों की तरह ना दिन में सोते हैं और ना रात में सोते हैं, बस काम, काम, काम और कुछना कुछ काम करते रहते हैं। श्यामानंद झा जी कहते हैं कि किशनगंज को नशा मुक्त बनाने के लिए भी मैंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है और मेरे अभियान के कारण 15000 से अधिक लोग नशा छोड़ चुके हैं।


तीन लाख से अधिक लोगों को मैंने गायत्री परिवार से जोड़कर उनके कर्तव्यों का बोध करवाया है। गायत्री परिवार द्वारा किसी भी आयोजन को सफल बनाने के लिए यहां के मुसलमान समाज के लोग बढ़ चढ़कर भाग लेते हैं और चंदा तक देते हैं। जब कोई आयोजन होता है तो कोई 15 से 20000 रुपए का चंदा देता है तो कोई चावल, दाल, आलू का खर्च उठाते हैं।


स्कूल के दिनों में वैसे तो कोई भी शिक्षक मेरा विरोध नहीं किया करते थे लेकिन जो एक आध विरोध करते भी थे उनको भी जिला शिक्षा पदाधिकारी, डीएम और उनके अधिकारियों के द्वारा समय-समय पर डांट फटकार लगा दिया जाता था। मेरे कहने से पहले ही अधिकारियों के द्वारा उन लोगों से कहा जाता था कि कोई तो है जो इस जिले को आगे बढ़ाने के लिए मन लगाकर काम कर रहा है। अधिकारियों ने मुझे हमेशा उचित मान और सम्मान दिया।


मुझे आज भी याद है जब पहली बार साक्षरता मिशन कार्यक्रम को लांच किया गया था तो पूरे जिले में सबसे अच्छा काम करने के लिए मुझे बेस्ट टीचर का अवार्ड मिला था। यूनाइटेड नेशन की टीम ने आकर हमारे स्कूल में चल रहे कार्य शैली को देखा था। अधिकांश पत्रकार मुझ से सवाल करते थे कि में इतना काम कैसे कर लेता हूं, मैं स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का काम भी करता हूं या नहीं, तो मेरा सीधा सा जवाब होता था कि एक साल में रविवार की 52 छुट्टियां है और 16 कैजुअल लीव है। राज्य सरकार द्वारा जितनी छुट्टियां दी जाती है, उस दौरान में अपना सारा काम इसी छुट्टियों के दिनों में करता हूं। परमार्थी जीवन जीने के कारण मेरा कोई भी काम चलता नहीं था बल्कि दौड़ता था।


मेरे इस अभियान में मेरी धर्मपनी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। 60% से अधिक मैं उनको क्रेडिट देता हूं। अगर उनका योगदान नहीं मिलता तो मैं जो चाहता वह कभी नहीं कर पाता। मुझे इस बात की चिंता कभी नहीं रही कि मेरे बच्चे घर में पढ़ाई-लिखाई ठीक से करते हैं या नहीं। उनके पास पहनने के लिए कपड़े हैं या नहीं। मैं बस चेक पर साइन कर अपनी पत्नी को दे दिया करता और सब कुछ वह अपने हिसाब से समय पर सुचारू रूप से चलाती थी। बैंक से पैसा लाने से लेकर वेतन ठीक ढंग से बना या नहीं यह सब कुछ पनी के जिम्मे था। मैं तो बस राष्ट्र के लिए समर्पित होकर काम करना चाहता हूं, ताकि मरने के बाद कटघरे में खड़ा ना होना पड़े।


स्यामानंद झा जी बताते हैं कि साल 1978 में उन्हें पहली बार गायत्री परिवार से जुड़ने का मौका मिला तब से लेकर अब तक वे गायत्री परिवार के साथ मिलकर समाज को आगे बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं। 1980 में अध्यात्म विश्व सम्मेलन का आयोजन हुआ था जिसमें कुछ सिलेक्टेड लोगों को ही शामिल होने का मौका मिलता था और सौभाग्य से बहुत जल्द मुझे वह अवसर मिल गया। मैं दिन में सिर्फ एक टाइम भोजन किया करता था और आध्यात्मिक साधना कम से कम सात घंटे करता था। मैं साल के हर एक दिन सुबह 3:00 बजे जग जाया करता था। आध्यात्मिक क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने के लिए पांच साल के अंदर ही मुझे राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्र सम्मान से सम्मानित किया गया। श्यामानंद झा जी कहते हैं कि मैं ने रेड लाइट एरिया में काम करने वाली महिलाओं के लिए भी काम किया है और किशनगंज को एड्स मुक्त बनाने के लिए विशेष अभियान चलाया है। एड्स उन्मूलन के लिए किशनगंज में चरका अभियान चलाया गया था। मैं ने इस अभियान को सफल बनाने के लिए पांच सालों तक काम किया।


मुझे यहां भी बेहतर काम के लिए अवार्ड मिल चुका है। इसी बीच यूनाइटेड नेशन टीम द्वारा एक ऐसे लोगों की तलाश की जा रही थी जो धार्मिक होने के साथ-साथ समरसता में विश्वास करता हो, जो किसी भी क्षेत्र में काम करने से संकोच न करता हो। यह वह दौर था जब लोग एड्स पर बात करने से हिचकिचाते थे। एड्स कैसे होता है और कैसे फैलता है, इस पर तो लोग बात करने के लिए भी तैयार नहीं थे। लेकिन मुझे कभी भी लोगों से एड्स पर बात करने में किसी तरह का संकोच नहीं होता था। महिलाओं को जागरूक करने के लिए मैं रेड लाइट एरिया में जाकर उन महिलाओं से बात करता था जो सेक्स वर्कर के रूप में काम किया करती थी।


आपको पता ही है कि यह एक सीमावर्ती क्षेत्र है और यहां के विभिन्न होटलों में लड़कियों को लाकर धंधा करवाया जाता था। मैं उन महिलाओं से मिलकर उन्हें समझाता था कि युवाओं को बर्बाद मत करो। समझाने के बाद भी जो लोग तुम्हारे पास आते हैं उन्हें कम से कम कंडोम प्रयोग करने को बोलो। चरका प्रोजेक्ट के तहत मुझे हजारों की संख्या में कंडोम दिया जाता था जो मैं रेड लाइट एरिया की महिलाओं के बीच में जाकर वितरण कर दिया करता था।


इसी बीच मेरा सिलेक्शन वर्ल्ड टूर के लिए किया गया जिसमें मुझे कहा गया कि आपको 70 देशों में घूम-घूम कर अपने संदेशों को लोगों तक पहुंचाना है। मुझे पासपोर्ट तैयार करने को कहा गया। जब इस बारे में मैंने अपनी धर्मपत्नी से पूछा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। जिस पत्नी ने कभी भी सामाजिक कार्य लिए मुझे नहीं रोका उसने पहली बार में ही मुझे ना कह दिया। उसके पीछे कारण यह था कि 70 देश में जाने के लिए कम से कम दो साल की छुट्टी लेनी होती और दो साल तक मुझे भारत से बाहर रहना होता। बच्चे भी छोटे थे और उनकी पढ़ाई लिखाई पर भी असर पड़ सकता था। मेरी पली ने मेरा हाथ पकड़ते हुए साफ-साफ इनकार कर दिया था कि दो साल के लिए इन्हें घर छोड़कर जाने नहीं दिया जा सकता है।


शिक्षक पिता से मिला शिक्षा का अलख जगाने का संदेश

श्यामानंद झा कहते हैं कि हम लोग मूल रूप से अररिया जिले के ढोलबज्जा फारबिसगंज के रहने वालें हैं। मेरे पिताजी गांव के ही सरकारी स्कूल में शिक्षक थे और मेरे जन्म के मात्र 6 साल के बाद उनका निधन हो गया। मेरे पिताजी लोगों के लिए शिक्षा क्षेत्र में अलख जगाना चाहते थे और प्रेरणा स्रोत बनना चाहते थे। मेरे पिताजी का सपना एक तरह से अधूरा रह गया। इसी बीच उनका निधन हो गया। परिवार में हम लोग तीन भाई और तीन बहन थे। मां ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। बड़े भैया अररिया में तो छोटा भाई फारबिसगंज में पढ़ाई करता था।


साल 1969 में मैंने जिला स्कूल पूर्णिया से मैट्रिक पास किया। हिंदी ऑनर्स का छात्र रह चुका हूं। कुल मिलाकर पूर्णिया जिले में ही शिक्षा दीक्षा संपन्न हुई है। फारबिसगंज कॉलेज से स्नातक करने के बाद मैंने कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय से भी डिग्री प्राप्त की है। कॉलेज में पढ़ने के दौरान ही मुझे नौकरी मिल गई। पहली बाली नौकरी अनियमित थी और दूसरी वाली नियमित।


मेरे पिताजी के एक दोस्त हुआ करते थे शिवनारायण ठाकुर। एक दिन उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि तुम्हारे अंदर तुम्हारे पिताजी के गुण दिखाई पड़ते हैं। तुम्हारे पिता एक अच्छे शिक्षक बनना चाहते थे जो राष्ट्रीय स्तर पर लोगों के लिए एक आदर्श बन सके। समय से पहले ही वे दुनिया छोड़कर चले गए इसलिए उनका सपना अधूरा रह गया। मुझे लगता है कि इस ओर तुम्हें ध्यान देना चाहिए और पिता के सपने को सच करने के लिए काम करना चाहिए। मैंने उनकी बातों को सुनने के बाद उन्हें वचन दिया था कि अगर मैं पढ़ लिखकर अच्छे पद पर अगर जा सका तो उनके सपने को साकार करने के लिए यथासंभव प्रयास करूंगा।

नौकरी के बाद भी वे समय-समय पर मिलते रहे और मेरे द्वारा किए गए वादे को याद दिलाते रहे। आप कह सकते हैं कि उसे एक वादे को पूरा करने के लिए मेरा अभियान आज तक जारी है।

अपने परिवार के बारे में जानकारी देते हुए श्यामानंद ज्ञा कहते हैं कि शादी के बाद उनके यहां दो लड़की और एक लड़के ने जन्म लिया। सभी अच्छे मुकाम पर हैं और खुशहाली का जीवन जी रहे हैं। मेरी छोटी बेटी शिक्षिका है। बड़ी बेटी दिल्ली में रहती है और संगीत विभाग में डायरेक्टर पद पर कार्यरत है। दामाद डीएवी में प्रोफेसर है। बेटा शिवनारायण यूनिवर्सिटी में प्रोजेक्ट मैनेजर है। उनके नाम क्रमशः पदमा भारतीय, किरण भारतीय और ललितेंद्र भारतीय है।


हम लोग बाहर बैठकर बातचीत कर रहे थे इसी बीच उनकी पर्मपनी पार लेकर आती है और बातें का सिलसिला आगे बढ़ने लगता है। श्यामानंदजी कहते हैं कि अगर धर्मपली का सहयोग नहीं होता तो जीवन में कुछ भी कर पाना असंभव था। पूछने पर पली कहती है कि मैं भला विरोध क्यों करती। यह तो समाज के लिए काम कर रहे थे। मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि उनके सामाजिक कार्यों के कारण मेरा परिवार बिगड़ रहा है या यह हमें टाइम नहीं दे पा रहे हैं। मैं तो खुद भी इनके द्वारा पढ़ाये जा रहे गरीब बच्चों को कपड़े और किताब खरीद कर दिया करती थी।


मुख्यमंत्री लालू यादव और नीतीश में से कोन बेहतर

जब उन्होंने कहा कि लालू यादव के शासनकाल में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ भी काम नहीं हुआ तो हमने सवाल किया कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का शासन काल कैसा रहा। बिना किसी हिचक के वह कहते हैं कि नीतीश कुमार जी के शासन में बीच में शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए काम किया गया था लेकिन अब तो शिक्षकों को ही अपमानित किया जा रहा है। ऐसे-ऐसे नियम और कानून बनाए जा रहे हैं जिससे शिक्षक पढ़ने के बदले परेशान हो रहे हैं। एक तरह से कह सकते हैं कि शिक्षा की स्थिति बिगड़ती चली जा रही है। नीतीश जी के शासन में शिक्षकों के मनोबल को तोड़ दिया गया है।


सिर्फ कानून बनाने मात्र से आप शिक्षकों को नहीं जीत सकते हैं। उनका मन तो काफी कोमल होता है। ऐसा कर दिया गया है कि ना तो समाज में और ना ही बच्चों की बीच शिक्षकों की इज्जत रह गई है। सुबह के समय कुछ और कानून बनता है और शाम ढलते ढलते दूसरा कानून बना दिया जाता है। उनका यह भी कहना है कि बिहार में योग्य शिक्षकों की कोई कमी नहीं है लेकिन काम करने नहीं दिया जा रहा है। उनका आरोप है कि राज्य सरकार की पॉलिसी है कि बिहार को एजुकेटेड नहीं करना है। सभी जानते हैं कि जब तक बिहार के लोग मूर्ख रहेंगे तब तक आसानी से वोट लेते रहेंगे। जैसे ही आदमी पढ़ लिख लेगा वैसे ही वे अच्छे और बुरे के बीच का अंतर जान लेगा।


उनकी माने तो शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए बिहार के जिन-जिन मुख्यमंत्रियों ने महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं उनमें विनोदानंद झा, भागवत झा आजाद, जगन्नाथ मिश्रा का नाम शामिल है।


क्या सच में मिनी पाकिस्तान है किशनगंज या सीमांचल ?

श्यामानंद झा कहते हैं कि मीडिया में जो कुछ दिखाया जा रहा है वह पूरा सच नहीं है। मैंने यहां काम किया है और मैं जानता हूं कि यहां के लोग कितने अच्छे हैं। जब कभी समाज में कुछ अनवन होता है तो यहां के मुसलमान समाज के प्रतिष्ठित लोग अपने ही समाज के लोगों को समझाते हैं। यही हाल हिंदू समाज के लोगों का भी है, अगर हिंदू समाज का लड़का कभी गलती से भी गलत कदम उठाता है तो उनके अपने ही उन्हें डांट कर समझाते हैं। इसके बावजूद अगर किसी सामूहिक कार्यक्रम में किसी तरह का विघटन होता है तो इसमें जितना दोषी हिंदू समाज के लोग होते हैं उत्तना ही दोषी मुसलमान समाज के लोग होते हैं। हम लोगों को समझना होगा कि हम सब एक हैं और इस देश के नागरिक है। सब के सब भारतीय हैं कोई भी बाहरी नहीं है।


राष्ट्रपति अवार्ड के साथ-साथ मिल चुका है कई सम्मान

राष्ट्रपति पुरस्कार से किशनगंज जिले में प्रथम व्यक्ति के रूप में सम्मानित हो चुके हैं और देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों इन्हें अवार्ड मिला है।


• यूनाइटेड नेशन एड्स सिविल सोसाइटी अवार्ड से भारत में प्रथम व्यक्ति के रूप में सम्मानित किया गया है

• आध्यात्मिक क्षेत्र में विशिष्ट कार्य के लिए वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्र से सम्मानित किया गया है

• पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य के लिए सर सैयद अवार्ड दिया गया है

• बिहार राज्य साक्षरता मिशन द्वारा इन्हें सम्मानित किया गया है।

• युवा कार्य एवं खेल मंत्रालय भारत सरकार नेहरू युवा केंद्र किशनगंज द्वारा सम्मान प्राप्त हो चुका है

• किशनगंज जिला पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है

• बिहार शिक्षा परियोजना परिषद पूर्णिया द्वारा सर्वश्रेष्ठ विद्यालय के लिए मिला सम्मान

• किशनगंज जिला शिक्षा विकास के लिए हो चुके हैं सम्मानित

• एड्स नियंत्रण चरका का परियोजना किशनगंज द्वारा वेस्ट मोटीवेटर के रूप में मिल चुका है सम्मान

• वृक्ष पिता के रूप में प्रखंड कृषि पदाधिकारी कोचाधामन के हाथों मिला है सम्मान

• निर्मल ग्राम पंचायत राज बिशनपुर में गणतंत्र दिवस राष्ट्रीय महान पर्व के शुभ अवसर पर शिक्षक सम्मान समारोह में प्रथम व्यक्ति के रूप में सम्मानित

• कोरोना वारियर्स एवं समाज सेवा के लिए हो चुके हैं सम्मानित


मेरा सपना है कि यहां बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की शाखा खुले

श्यामानंद झा कहते हैं कि किशनगंज में अलीगढ़ विश्वविद्यालय की प्रशाखा खोली गई है जो खुशी की बात है। इसको धरातल पर उतारने के लिए और सफल बनाने के लिए किशनगंज की जनता के साथ-साथ मैने भी संघर्ष किया है। मेरा सपना है कि किशनगंज में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की प्रशाखा भी खुले और इसके लिए लोगों को आवाज उठानी चाहिए। जनप्रतिनिधियों के सामने मांग रखनी चाहिए। किशनगंज को एजुकेशन हब बनाने की जरूरत है। सारी परेशानियों का हल एक मात्र शिक्षा है और अगर ऐसा हो जाता है तो किशनगंज भारत का नंबर वन जिला बन जाएगा।


यहां जितनी शांति और भाईचारा है वह बहुत कम जगह दिखने को मिलता है। दो-चार बुरे आदमी तो हर एक गांव और हर शहर में रहता है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव का उल्लेख करते हुए, वे कहते हैं कि मुझे उनका एक नारा बहुत अच्छा लगा था को पढ़ो या मरो। हालांकि उनके मुख्यमंत्री रहते बिहार में शिक्षा विभाग की स्थिति बद से बदतर हो गई थी। श्यामानंद झा जी का मानना है कि साधन संपन्न होने मात्र से कोई शिक्षित नहीं हो सकता। मैं कई ऐसे परिवार के लोगों को जानता हूं जिनके पास 100 बीघा से अधिक जमीन है लेकिन उनके घर में बहुत कम लोग पढ़े लिखे लोग हैं।


किशनगंज में अब चारों ओर दिखता है बदलाव

श्यामानंद झा जी कहते हैं कि आज की बात करें तो किशनगंज में बहुत ज्यादा बदलाव हुआ है। पहले जिस जगह पर एक से दो लड़के या लड़कियां पढ़ाई करने स्कूल-कॉलेज जाया करते थे यहां अब 90% से अधिक बच्चे शिक्षित हो रहे हैं और नौकरी प्राप्त करते हैं। सबसे खासियत की बात यह है कि लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या काफी अधिक है। किशनगंज में 50% से अधिक लड़कियां आज की डेट में स्कूल कॉलेज में जाती है। अभी और बहुत काम करना बाकी है। मेरा अभियान रुका नहीं है वह आगे भी जारी रहेगा। मैं सदैव दूसरों के बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए और शिक्षित बनाने के लिए काम करता रहा संभवत यही कारण है कि ऊपर वाले ने मेरे बच्चों को भी अच्छा मुकाम दिला दिया।


शिक्षा क्षेत्र में बेहतर काम करने के लिए मिला राष्ट्रपति अवार्ड

आपको राष्ट्रपति अवार्ड क्यों मिला इस बात का जवाब देते हुए श्यामानंद झा कहते हैं कि किसी भी शिक्षक को सिर्फ इसलिए राष्ट्रपति अवार्ड नहीं मिल सकता कि उन्होंने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने का काम किया है। राष्ट्रपति अवार्ड के लिए आपको शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में भी महत्वपूर्ण योगदान देना होगा। स्कूल से हटकर आपको राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए रचनात्मक और संस्कृति के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र में भी अच्छ काम करना होगा। बहुत पहले यहां मुस्तफा हुसैन मंसूरी नामक डीएसई हुआ करते थे। वे काफी अच्छे और विद्वान आदमी थे। वे हर बार जिले से चार या पांच लोगों का सिलेक्शन करते थे और उसे राष्ट्रीय स्तर पर भेजते थे लेकिन कभी भी उनके द्वारा भेजे गए नामों को फाइनल सिलेक्शन में शामिल नहीं किया जाता था। एक बार की बात है किशनगंज डीएम के नेतृत्व में एक बैठक का आयोजन किया गया था जिसमें उन्होंने कहा कि हम कई बार से नाम भेजते हैं लेकिन हमारे शिक्षकों का सिलेक्शन नहीं हो पाता है, इसलिए इस बार आप अपना फोल्डर बना कर दीजिए। हमें पूरा विश्वास है कि आप इस राष्ट्रपति अवार्ड के लिए डिजर्व करते हैं।


जिला शिक्षा समिति द्वारा मेरे नाम का चयन किया गया। इससे पहले मुझे पर्यावरण क्षेत्र में काम करने के लिए भी जिला स्तर पर पुरस्कार प्राप्त हो चुके थे। इसके बाद मैंने उनको राष्ट्रपति अवार्ड के लिए फोल्डर बनाकर दे दिया। नेहरू युवा केंद्र के कोऑर्डिनेटर डॉ राम किशोर प्रसाद श्रीवास्तव को याद करते हुए श्यामानंद झा कहते हैं उनकी मदद से मैंने फोल्डर बनाया और विभाग को सौंप दिया। फोल्डर को पहले पूर्णिया फिर पटना और फिर दिल्ली भेजा गया और आप मान कर चलिए की देशभर से जितने फोल्डर मंगवाए गए थे, मेरा फोल्डर सबमे से बेस्ट ऑफ द बेस्ट निकला।


मुझे जब राष्ट्रपति अवार्ड के लिए चुना गया उस समय अटल बिहारी वाजपेई देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे और एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति। यह पुरस्कार साल 2002 के लिए था जो 2003 में दिया जाना था।

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