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मुफ्त योजनाओं की राजनीति लोकतंत्र पर बोझ या जनकल्याण ?

  • Writer: MOBASSHIR AHMAD
    MOBASSHIR AHMAD
  • Mar 19
  • 4 min read

• डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र


राजनीति एक पावन शब्दावली है। बिना राजनीति के कुछ भी संभव नही है। लोकतंत्र में इसका महात्मय इस कारण और बढ़ जाता है क्योंकि बिना प्रतिकार के लोकतंत्र अधूरा है। राजनीति इसी कारण रोचक है क्योंकि लोगों में असहमति है। इस असहमति को व्यक्त करने की संस्था है राजनीतिक दल। यह असहमति देश की प्रगति के लिए जरूरी है किन्तु जब यही स्वार्थ के वशीभूत हो जाती है तो घातक साबित होती है। दुर्भाग्यवश भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों के द्वारा अपनी स्वार्थपरायणता के चलते सामान्यतः 'मुफ़्त की राजनीति' का दौर प्रचलित हो गया है।


इसका उदाहरण अभी विगत सप्ताह सम्पन्न दिल्ली विधानसभा चुनाव में देखने को खूब मिला है। क्या कांग्रेस, क्या आप और अब तकरीबन 27 साल बाद दिल्ली की सत्ता सम्हालने जा रही भाजपा, सभी ने अपने घोषणा पत्र में 'मुफ़्त की रेवड़ी बाटने' का वादा किया था। भारतीय राजनीति में यह एक सामान्य परिघटना है। मुफ्तखोरी की राजनीति का इतिहास काफी लंबा है। 1967 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव से इसकी शुरूआत हुई जब द्रमुक ने एक रुपये में डेढ़ किलो चावल देने का वादा किया फिर तो धीरे-धीरे इस प्रवृत्ति ने पूरे देश में अपना पाँव जमा लिया। संप्रति यह आम चुनाव (लोकसभा) का भी हिस्सा बन गई है।



12 फरवरी 2025 को सर्वोच्च न्यायालय की एक तल्ख टिप्पणी से यह देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ड मसीह की बेंच ने शहरी इलाकों में बेघर लोगों को आसरा दिए जाने की याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से पूछा कि कि मुफ्त राशन और अन्य सुविधाओं के कारण लोग काम करने से बच रहे हैं, क्या ऐसी योजनाओं से समाज में परजीवियों की संस्कृति नहीं पनप रही है? सुप्रीम कोर्ट के द्वारा मुफ्त योजनाओं पर सवाल उठाना कोई नई बात नहीं है, इसके पूर्व भी क्रमशः अक्टूबर 2024 और दिसंबर 2024 में कोर्ट ने इस प्रकार के प्रश्न किए हैं। अक्टूबर 2024 में उच्चतम न्यायालय ने केंद्र और चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर पूछा था कि चुनाव से पहले मुफ्त योजनाओं की घोषणा को रिश्वत क्यों न माना जाए। इसी प्रकार दिसंबर 2024 में भी कोर्ट ने मुफ्त राशन वितरण पर टिप्पणी की थी और सरकार से रोजगार सृजन पर ध्यान देने को कहा था। 2013 में भी मुफ्त उपहारों की इस राजनीति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से राजनीतिक पार्टियों से चर्चा कर चुनावी घोषणा पत्रों के लिए प्रभावी दिशानिर्देश तय करने का दिशा निर्देश जारी करने को कहा था। हालांकि इस प्रकार के दर्जनों उदाहरण मिल जाएंगे लेकिन राजनीतिक दलों के चरित्र में लेशमात्र भी बदलाव नही दिखता है वरन् आजकल तो राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में मुफ़्त की घोषणाओं की बाढ़ सी आ गई है। सबसे मजेदार बात यह है कि वर्ष 2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 'रेवड़ी संस्कृति' की आलोचना करते हुए इसे देश के विकास के लिए खतरनाक बताए जाने के बावजूद भाजपा सहित अन्य दल भी इस प्रवृत्ति का अनुसरण कर रहे हैं।


राजनीतिक दल सामान्यतः मुफ्त योजनाओं के जरिए मतदाताओं को लुभाने का अनवरत प्रयास करते हैं लेकिन ये योजनाएं आर्थिक रूप से टिकाऊ नहीं होतीं। इनसे बाजार में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है, निजी निवेश भी प्रभावित होता है। साथ ही श्रमशक्ति की उत्पादकता भी घटती है। आसमान वितरण से सामाजिक असंतुलन उत्पन्न होता है। मुफ्त योजनाओं की राजनीति अल्पकालिक लाभ देती है, लेकिन आर्थिक असंतुलन, बाजार विकृति और परजीवी मानसिकता को बढ़ावा देकर लोकतंत्र पर बोझ बनती है। इस प्रवृत्ति से बचने के लिए कानूनी आचार संहिता की जरूरत होती है। वास्तविक सशक्तिकरण के लिए कौशल विकास, रोजगार सृजन और संरचनात्मक सुधार की नितांत आवश्यकता है। भारत में आर्थिक स्थिरता तभी लायी जा सकती है जबकि लोकलुभावन वादों के बजाय दीर्घकालिक कल्याणकारी नीतियों पर ध्यान दिया जाए।


यद्यपि लोककल्याणकारी राज्य होने के नाते हाशिये के लोगों की मौलिक जरूरतों को पूरा करना सरकार का कर्तव्य है लेकिन सबकुछ मुफ़्त में देना वो भी सिर्फ इस लिए कि 5 वर्षों तक सत्ता का सुख भोगा जा सकें, कहीं से भी न्यायोचित प्रतीत नही होता। हाँ कुछ शर्तों के साथ इसे किया जा सकता है। मसलन यदि बेरोजगारी भत्ता देने का कोई राजनीतिक दल संकल्प लेता है तो उसे पूरा करने के लिए ग्रामीण और शहरी स्तर पर बहुत से ऐसे कार्य हैं जिन्हे युवाओं से करा कर उन्हे भत्ता दिया जा सकता है जैसे विविध सरकारी योजनाओं से आम जनता को रूबरू कराना, विविध प्रकार के आकणों को इकट्ठा करने में मदद करना सम्मिलित किया जा सकता है। इससे युवाओं में स्वाभिमान जाग्रत होगा और समाज में परजीवियों की संस्कृति के विकास पर रोक लगेगी।


यदि राजनीतिक दल प्रभावी आर्थिक नीतियों को लागू करें और कल्याणकारी योजनाओं को उपयुक्त लाभार्थियों तक पहुंचाएं, तो निःसंदेह बुनियादी ढांचा और विकास स्वतः सुदृढ़ होगा। इससे रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे, आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिलेगा, और धीरे-धीरे मुफ्त योजनाओं की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी। वास्तविक प्रगति के लिए सतत विकास और लक्ष्य आधारित नीतियां आवश्यक हैं, न कि केवल तात्कालिक लाभ के लिए दिए गए लोकलुभावन वादे।

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