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राजकीय मेले का दर्जा कब ?

  • Writer: MOBASSHIR AHMAD
    MOBASSHIR AHMAD
  • Feb 16
  • 18 min read
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• रोशन झा


'क्या कहा, आप किशनगंज के खगड़ा मेला के बारे में नहीं जानते हैं, अरे भाई साहब सोनपुर मेला के बाद वह एशिया का दूसरा सबसे बड़ा पशु मेला था, मलेशिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश श्रीलंका और नेपाल-भूटान सहित्त कई देशों से व्यापारी इस किशनगंज में व्यापार करने के लिए आते थे और आप कहते हैं कि आपको इसके बारे में कुछ मालूम ही नहीं।'


चाय दुकान पर बैठे उस दुकानदार ने घूरते हुए मुझे जवाब दिया। जब साल 2024 के नवंबर-दिसंबर महीने में मैं पहली बार किशनगंज आया था, सच में मुझे खगड़ा मेले के बारे में कुछ भी पता नहीं था, मुझे लगा कि वह चाय दुकान पर बैठा आदमी झूठ बोल रहा है। भला ऐसा कैसे हो सकता है। अगर यह मेला सच में ऐतिहासिक है तो पटना सहित बिहार के अन्य जिले के लोग इसके बारे में इतना क्यों नहीं जानते हैं। सच जानने के लिए हमने इंटरनेट का सहारा लिया। आपको जानकर आश्चर्य लगेगा की लोकल अखबार के अलावे एक दो न्यूज पोर्टल को छोड़ दिया जाए तो खगड़ा मेले के बारे में बहुत कुछ ज्यादा विस्तार से नहीं लिखा गया था। हां इंटरनेट के माध्यम से इतना तो पता चल चुका था कि यह मेला सच में ऐतिहासिक है और यहां एक बार हमको और आपको जाना चाहिए।

पांच फरवरी 2025 को फिर उसी चाय दुकान पर बैठकर चाय पी रहा था कि तभी बगल से एक प्रचार गाड़ी क्रॉस करती है। गीत के बोल थे, 'मेला दिलों का आता है, एक बार आके चला जाता है', मेला आयोजक के द्वारा इस गाड़ी को प्रचार प्रसार के लिए जगह-जगह घुमाया जा रहा था। चाय दुकानदार ने इस बार फिर मुझे टोका।' सर अच्छा मौका है, इस बार आए हैं तो खगड़ा मेला घूमने जरूर जाइएगा, बहुत अच्छा आयोजन होता है सर, बड़ा बड़ा झूला भी लगा है, सुनते हैं कि रसियन जलपरी को पहली बार बुलाया गया है, ज्यादे दूर नहीं है सर, समय निकाल कर जाइएगा जरूर'। वह एक सांस में सब कुछ कहते चला गया और मैं चुपचाप सुनता रहा। आखिरकार एशिया के दूसरे सबसे बड़े ऐतिहासिक मेले को देखने के लिए हम भी पहुंच ही गए। खगड़ा मेला को देखने के बाद मेरे मन में किसी शायर की वह शायरी घूमने लगी की, 'किस्मत बनाने वाले वूने कमी ना की, किसको क्या मिला मुकद्दर की बात है'।

इसे देखने के बाद आप भी कह उठेंगे की सोनपुर मेले के बाद यह बिहार का सबसे बड़ा मेला है। अंतर सिर्फ इतना है कि सोनपुर मेले को सफल बनाने के लिए जिला प्रशासन और बिहार सरकार की ओर से तरह-तरह की तैयारियां की जाती है और किशनगंज के इस खगड़ा मेले को सफल और ऐतिहासिक बनाने के लिए प्रशासन की ओर से किसी तरह की कोई तैयारियां नहीं देखने को मिलती है। आश्वर्य की बात यह है कि किशनगंज जिला प्रशासन द्वारा जो सरकारी वेबसाइट बनाया गया है उसमें भी इस मेले को लेकर ना तो कोई जानकारी दी गई है और ना ही कोई सूचना किश्वनगंज आने वाले टूरिस्ट के लिए साझा किया गया है। मतलब साफ है कि किशनगंज जिला प्रशासन का इस मेले से कोई नाता नहीं है।


कब और कैसे शुरू हुआ था किशनगंज का ऐतिहासिक खगड़ा मेला

इंटरनेट की मदद से हमें यह तो पता चल चुका थाकि 143 साल पहले खगड़ा स्टेट के नवाब सैयद अता हुसैन साहब ने इस मेले की शुरूआत की थी, लेकिन हम इस मेले के बारे में और अधिक डिटेल में जानना चाहते थे और इसी बीच हमारी मुलाकात होती है शहर के एक प्रतिष्ठित समाजसेवी उस्मान गनी साहब से।


यह बताते हैं कि मुझे आज भी याद है कि मैं अपने दादा के कंधे पर बैठकर इस मेले में घूमने जाया करता था। वह भी क्या दिन थे एक महीने के लिए मानो पूरा किशनगंज बाजार इस मेला परिसर में आकर जमा हो जाया करता था। किशनगंज के लोग 11 महीने की खरीदारी इसी एक महीने के मेले में आकर कर लिया करते थे।


हमने इस मेले के बारे में अपने दादा से जो कुछ सुना है उसके अनुसार दूर-दूर से व्यापारी लोग यहां अपना अपना कारोबार करने को आते थे। यह सिर्फ किशनगंज का मेला नहीं बल्कि उत्तर भारत का एक प्रतिष्ठित मेला था। कभी इस मेले का आयोजन तीन महीनों तक चलता था जो बाद के दिनों में एक महीने तक आकर सिमट गया। एक समय था जब यहां हाथी घोड़ा, ऊंट, गाय, बैल, भैंस, बंदर, कुत्ता, खच्चर सहित अधिकांश जानवरों की भी बिक्री होती थी।


गांव देहात से लोग अपने जानवर बेचने के लिए भी यहां आते थे और खरीदने के लिए भी यहां आते थे। सबको पता था कि इस मेले में कीमतें अच्छी मिलेगी। यह वह दौर था जब शॉपिंग मॉल का कॉन्सेप्ट नहीं शुरू हुआ था। गांव देहात की महिलाएं बैलगाड़ी में झुंड बनाकर सवार होती थी और श्रृंगार के समान स्नो, पाउडर, लिपिस्टिक, कान की बाली, पैर के पाजेब, हाथों की चुड़िया, कपड़े सहित अन्य उपयोगी सामग्रियों की खरीददारी करने आती थी। इन लोगों के मनोरंजन के लिए ही कभी यहां नौटंकी तो कभी ड्रामा कंपनी को बुलाया जाता था।


वह बताते हैं कि साल 1882 में पहली बार इस मेले का आरंभ हुआ था। थोड़ी देर बाद वे अपनी उंगलियों पर कुछ जोड़ने लगते हैं और फिर कहते हैं कि 143 साल हो चुके हैं। सब कुछ बदल गया है। ना पहले जैसा मेला लगता है और ना पहले की तरह लोगों की भीड़ जुटती है। आप अंदाजा लगा लीजिए जब लोगों के पास आने और जाने का कोई संसाधन नहीं हुआ करता था। जब प्रचार प्रसार का बहुत बड़ा माध्यम नहीं था। तब भी यहां रोज हजारों लाखों लोगों की भीड़ जमा होती थी।


लोग सालों भर इस मेले का इंतजार करते रहते थे और लिस्ट बनाते रहते थे कि मेले से क्या खरीदना है और क्या नहीं। क्या हिंदू और क्या मुसलमान । क्या अमीर और क्या गरीब। सबके सब बस एक बार इस मेले को आकर जरूर देखना चाहते थे। इस मेले में एक आना का भी सामान मिलता था और ₹1 से लेकर 100 से लेकर 1000 तक का भी सामान मिलता था। लेकिन अब तो किसी तरह मेला का आयोजन कर खानापूर्ति किया जा रहा है। यह हमारे शहर के लिए धरोहर है लेकिन कब तक चलेगा यह कहना मुश्किल है। मॉडर्न युग आ चुका है, सभी लोग ऑनलाइन शॉपिंग करने लगे हैं। अब तो जो लोग शहर के अंदर हैं वे लोग भी ना के बराबर जाते हैं। गांव देहात से आने वाले लोगों की तो बात ही छोड़ दीजिए।


उनको इस बात का भी मलाल है कि अब तक इस मेले को राजकीय मेला का दर्जा नहीं मिल सका है। जबकि जिला प्रशासन की ओर से मेला लगाने के लिए करोड़ों रुपए की राशि ली जाती है। वह हमें यह भी बताते हैं कि इस खगडा मेला परिसर में 11 महीने का हटिया और एक महीने का मेला लगता है।


किशनगंज के कुछ कारोबारी हैं जो जिला प्रशासन की ओर से नोटिस जारी होने के बाद मेले का आयोजन करने के लिए बोली लगाते हैं। देखिए कितने सालों तक चलता है यह कहना मुश्किल है। गनी साहब यह भी बताते हैं कि बिहार सरकार के नगर विकास मंत्रालय तक मामला पहुंचा है आशा करते हैं कि इस मेले को बहुत जल्द राजकीय मेला का दर्जा मिल जाएगा। मेले का क्षेत्रफल 1832 एकड़ का है। इस मेला परिसर के बगल में ही आपको बीएसएफ का ऑफिस दिखेगा जो कभी मवेशी हट्टी हुआ करता था। वर्तमान समय की बात करेंगे तो नेशनल हाईवे से लेकर हवाई अड्डा तक मवेशी हट्टी हुआ करता था।


भीड़ इतनी होती थी कि अगर कोई इस मेले में खो जाया करते थे तो उन्हें ढूंढना बहुत ही मुश्किल होता था। बीड़ी बनाने की कुछ कंपनियां हुआ करती थी मुख्ता बीड़ी और नूर बीड़ी, यह दोनों बंगाल की कंपनियां थी जिसका किशनगंज में ब्रांच हुआ करता था। आज भी है। इनके द्वारा नाच गाने का आयोजन किया जाता था। मेले को लेकर जमकर प्रचार-प्रसार किया जाता था। गनी साहब की मानें तो 1883 में इस मेले को अंग्रेज सरकार ने सरकारी स्तर पर आयोजित किया। लेकिन बावजूद इसके देखरेख का सारा जिम्मा नवाब साहब और उनके परिवारों पर हुआ करता था। मेला को लेकर क्या कहते हैं आयोजक इस साल का मेला 24 जनवरी से आरंभ हो चुका है और इस बार सरकारी डाक एक करोड़ 33 लाख 38000 है। किशनगंज के ही ठेकेदार सुधीर कुमार ने इस बार इस मेले का टेंडर लिया है और मेला व्यवस्थापक बबलू शाह के नेतृत्व में सब कुछ आयोजित किया जा रहा है। हम जब उनसे मिलने पहुंचे तो वह मेला परिसर में स्थित ऑफिस के बाहर बैठे हुए थे। बातचीत शुरू होते ही सबसे पहला दर्द उनका यह छलका कि प्रशासन ने जिस मेला गेट को तोड़ दिया आखिरकार उसका निर्माण क्यों नहीं किया जा रहा है। किशनगंज के लोगों के लिए मेला गेट का एक लैंड मार्क का काम किया करता था, जब किसी को किसी से मिलना होता था तो लोग एक दूसरे से कहते थे कि मेला गेट आ जाओ मैं वहां पर हूं। लेकिन अब मेल गेट ही गायब है। गेट रोड बनते बनते काफी नीचे हो गया और बाद के दिनों में बड़ी गाड़ियों को आने जाने में परेशानी होने लगी इसलिए इसे प्रशासन द्वारा तोड़ दिया गया। बबलू साह बताते हैं कि भूमि राजस्व मंत्री डॉ. दिलीप आयसवाल द्वारा मेला क्षेत्र के लिए 25 लाख रुपया आया हुआ है। जिससे शौचालय का निर्माण होना है और पेयजल की व्यवस्था होनी है। मुझे नहीं लगता कि इस पैसे से मेला गेट का निर्माण हो सकेगा। प्रशासन को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि इस मेला से जितना राजस्व प्राप्त हो रहा है उसका कितना प्रतिशत इस मेला कैंपस पर खर्च किया जा रहा है।


हम लोग पिछले कई साल से इस मेले का आयोजन कर रहे हैं। दो साल से मेरे नाम पर मेला था। इस साल संयोजक बदल गए हैं। मेला परिसर को अच्छा बनाने के लिए मिट्टीकरण करना सबसे अधिक जरूरत है। बरसात के समय पानी भर जाता है। ₹1200000 की राशि खर्च कर हमने गढ्ढ़ों को भरने का काम किया। लेकिन पूरे परिसर में मिट्टी भरने की सख्त आवश्यकता है और उस पर भारी भरकम पैसे खर्च होंगे। मिट्टी करण नहीं होने के कारण मेला कैंपस में 6 महीने तक पानी जमा रहता है जो अक्टूबर या नवंबर तक खत्म होता है। वर्तमान में ग्राउंड की स्थिति रोड से तीन फीट नीचा है।


प्रशासन पर आरोप लगाते हुए मेला आयोजकों का कहना है कि बिजली व्यवस्था नहीं की जाती है। इतने बड़े पैमाने पर मेला का आयोजन होता है लेकिन जिला प्रशासन द्वारा एडवांस पैसा जमा किए जाने के बाद भी हमारे लिए स्पेशल बिजली की व्यवस्था नहीं की जाती। आप देख रहे हैं कि हजारों की संख्या में लोग मेला घूम रहे हैं और अगर इसी बीच किसी कारण से बिजली कट जाती है तो सोचिए फिर क्या होगा। असामाजिक तत्व के लोगों को मौका मिल जाएगा और हम अगर जनरेटर स्टार्ट भी करवाए तो कम से कम दो से तीन मिनट खर्च होगा। प्रशासन द्वारा ना तो बिजली दी जाती है और ना ही कैंपस में बिजली पोल को व्यवस्था है। हम लोग बांस के सहारे बिजली तार ले जाते हैं जिस कारण कभी भी किसी समय बड़े हादसे हो सकते हैं। मेले को लेकर बिजली विभाग की घोर लापरवाही देखने को मिलती है एडवांस में व्यवस्था करने के बदले वे लोग इस बात को लेकर इंतजार करते हैं कि आखिर इस साल कितने स्टॉल लगाए जाते हैं। इस कारण कभी भी समुचित व्यवस्था नहीं हो पाती है। जबकि होना यह चाहिए कि मेला आयोजन से पहले ही विभाग को सभी तरह की तैयारीयाँ कर लेनी चाहिए।


दूसरी ओर शौचालय और पेय जल की व्यवस्था भी विभाग द्वारा नहीं की गई है। हम लोगों ने अपने से जो बना है वह किए हैं। पिछले साल बिहार सरकार के पीएचईडी विभाग द्वारा 22 चापाकल गाड़े गए थे, इस बार अभी तक एक भी नहीं दिख रहा। मेले की सुरक्षा भी भगवान भरोसे है, अभी तक मजिस्ट्रेट को नियुक्ति नहीं हुई है। कभी कभार कोई पुलिस वाले आते हैं राउंड लगा लेते हैं और चले जाते हैं। हमें अगर सुरक्षा के मद्देनजर किसी से बात करनी हो तो किससे बात करें अब तक पता नहीं है, हमें यह भी पता नहीं है कि हमारा मजिस्ट्रेट कौन है। हम लोगों ने अपने 40 से 50 वॉलिटियर्स को सुरक्षा में लगा रखा है लेकिन यह नाकाफी है।


जिला प्रशासन द्वारा मेले को लेकर हर साल टेंडर जारी किया जाता है और जिस किसी को टेंडर मिलता है उनके द्वारा मेले का आयोजन किया जाता है। यहां से जिला प्रशासन अपनी ड्यूटी को खत्म समझ लेती है। चलो भैया टेंडर हो गया हमें पैसे मिल गए अब इस मेला से हमारा कोई लेना-देना नहीं। इस बार की बोली एक लाख 27000 से शुरू हुआ, जो एक करोड़ 33 लाख 38 हजार रुपए पर फाइनल हुआ। टेंडर बोली फाइनल होते ही एक सप्ताह के अंदर 100% पैसा प्रशासन के पास हमें जमा करना होता है। अगर इस टेंडर राशि में से हर साल 25 से 50 लाख रुपया भी मेला परिसर को विकसित करने में लगा दिया जाए तो मेला परिसर में चार चांद लग जाएगा।


इतना ही नहीं 11 महीने के हटिया से भी सरकार को 76 लख रुपए की आमदनी होती है। इस साल का हटिया 90 लाख रुपए पर फाइनल हुआ है। क्या सरकार द्वारा कुछ सुविधा नहीं दी जाती है तो इसका जवाब दिया जाता है कि सरकार की ओर से हमें सिर्फ और सिर्फ इतनी सहूलियत मिलती है कि एक महीने का मेला खत्म होने के बाद इस मेले को 7 से 10 दिनों के लिए बड़ा दिया जाता है और उसके बदले में एक भी रुपया नहीं लिया जाता है। मेला आयोजक भी दुकानदारों से उसे 10 दिनों के लिए एक पैसा भी नहीं लेता। फायदा और घाटा के बीच दुकानदारों को लगता है कि कम से कम यह 10 दिन कमाने के लिए अच्छा है।


बबलू का कहना है कि उनके जन्म से पहले इस मेले में जबरदस्त भीड़ हुआ करता था, पूरा टाउन इस मेले में शिफ्ट हो जाया करता था। सारे कारोबारी इस मेल परिसर में आकर अपना-अपना दुकान लगाते थे। लोगों के मनोरंजन के लिए इस शहर के सभी सिनेमा हॉल मलिक मेला परिसर में ही सिनेमा हॉल खोल लेते थे। एक महीने के लिए शहर के सभी सिनेमा हॉल को बंद कर दिया जाता था। अभी भी एक पक्का सिनेमा हॉल का स्ट्रक्चर आपको मेला कैंपस में देखने को मिल जाएगा, उसके कुछ अवशेष बचे हुए हैं। यहां पर एक मस्जिद हुआ करता था जिसका निर्माण यह सोचकर किया गया था कि जो लोग मेला घूमने आते हैं उन्हें नमाज पढ़‌ने में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। यहां एक मंदिर भी हुआ करता था।


मेले का वर्तमान और भविष्य के बारे में आपकी क्या विचार है इस पर मेला आयोजकों का कहना है कि, जमाना बदल चुका है अब किशनगंज जिले में हर एक ब्रांडेड कंपनियों का सामान मिलता है। लोग ऑनलाइन खरीदारी करने लगे हैं और मेला में आने से बचते हैं। साल 1994 था 1995 में यह मेला 30000 या 35000 रुपए का हुआ करता था। मेला को जिंदा करने के लिए फ्री में दुकानदारों को बुला-बुला कर लाया गया और मेले को सजाया गया। उस समय लोगों से कहा गया कि आप लोग दुकान लगाइए अगर बिजनेस अच्छा होता है तो पैसा दीजिए‌गा और नहीं होता है तो मद दीजिएगा।


साल 2005 आते-आते यह मेला 5 से 7 लख रुपए का हो गया और उस समय भी यह मेला हमारे ही परिवार के लोगों के बीच में था। साल 1994 से लेकर अब तक सिर्फ चार बार यह मेला हमारे परिवार के किसी बाहरी आदमी के पास गया। यही कारण है कि यह मेला अब हमारे लिए भावनात्मक है। प्रॉफिट और लॉस छोड़ इस मेले का आयोजन हम लोग हर साल करते हैं, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी यह कह सके कि इस मेले को हमारे पूर्वजों ने बचा कर रखा है। इस मेले को कभी हमारे मामा जी लेते थे तो कभी चाचा जी, कभी हम तो कभी मेरा भाई, कुल मिलाकर परिवार के अंदर ही यह मेला रहता है।


मेला में लाभ होगा या घाटा इस बात का फैसला सिर्फ और सिर्फ किशनगंज और यहां के आसपास की जनता डिसाइड कर सकती है। अगर वे अधिक संख्या में आएंगे, मेला में घूमेंगे, कारोबारी का कारोबार होगा, झूला मालिकों को झूला में लाभ होगा तो वह हमें भी पैसे देकर जाएंगे। लेकिन अगर उन कारोबारियों का घाटा होगा तो मेला एक या दो साल तो अच्छे से चलेगा, बाद बाकी यहां आने वाले कारोबारी आना बंद कर देंगे।


हर साल हम लोग डिज्नीलैंड मेले का आयोजन करते थे लेकिन इस बार हमने सोनपुर मेला या राजगीर मेला में जो इंटरनेशनल लेवल का झूला

आता है उसे लाया गया है। लोग उसे सुनामी झूला के नाम से जानते हैं। अमूमन जो झूला दुर्गा पूजा या गणेश पूजा के अवसर पर आप गांव-देहात में लगते हुए देखे होंगे उसकी कीमत 25 से 30 लख रुपए होती है, लेकिन सुनामी झूले की कीमत 1 करोड़ से अधिक है। यही कारण है की टिकट में भी बदलाव दिख रहा है, नॉर्मल झूला 50 से 60 रुपए की है तो सुनामी झूला ₹100 का है। झूला मालिकों को पार्टनरशिप के तहत बुलाया गया है यानी जितनी उनकी आमदनी होगी उसमें हमारी हिस्सेदारी है। कुछ झूला फिक्स अमाउंट पर भी है और कुछ परसेंटेज पर भी लाया गया है। अगर सुनामी झूला की बात को जाए तो एक लाख की आमदनी होने पर 70000 झूला मालिक का और 30000 हमारा है।


बहुत मुश्किल से हम लोगों के लिए विभिन्न तरह के झूला लगवाते हैं, झूला कंपनी वाले जब मेला परिसर में झूला लगाने आते हैं तो ट्रक भारे से लेकर मजदूरों का खर्चा और भोजन पानी भी हमारी ओर से उपलब्ध करवाया जाता है। जैसे-जैसे मेला में उनकी आमदनी होती है वह हमारा पैसा हमें लौटा देते हैं और जाने से पहले सारा हिसाब क्लियर करके जाते हैं। मेले को जमाने के लिए हम लोग दुकानदारों को पैसे तक देते हैं कि आप यह पैसे लगाकर व्यापार करो, प्रॉफिट होने के बाद हिसाब करके वापस कर देना। इस बार पब्लिक को जुटाने के लिए हम लोग जलपरी लेकर आए हैं। लोगों को नया टेस्ट मिले इसीलिए इस बार पांच विदेशी झूला और जलपरी को लाया गया है।


बबलू जी की शिकायत है कि मेला शुरू हुए 10 से 15 दोनों का समय बीत चुका है लेकिन अभी तक शहर वासियों का रुझान मेला में नहीं दिख रहा। उन्हें उम्मीद है की अंतिम के 15 से 20 दिनों में लोग अपने-अपने घरों से बाहर निकलेंगे और मेला में जरूर आएगे इसलिए गांव देहात में प्रचार गाड़ी को फिर से भेजा जा रहा है। मेला आरंभ होने से पहले पोस्टर लगाकर गांव-गांव में प्रचार प्रसार किया जा चुका है। उनका यह भी कहना है कि अभी परीक्षा चल रही है यह भी कारण है कि युवा वर्ग के लोग कम आ रहे हैं। हम लोगों ने मजबूरी में मेले को 24 जनवरी से आयोजित कर दिया क्योंकि बहुत जल्द एक मार्च से रमजान का महीना आरंभ होने वाला है और रमजान महीने में लोग खाने-पीने का सामान ना के बराबर खरीदेंगे।


अधिकांश लोग रोजा होने के कारण मेला में आएंगे ही नहीं। वह कहते हैं कि मेला को बचाने के लिए जिला प्रशासन के स्तर पर प्रचार प्रसार होना चाहिए। टूरिज्म विभाग को किशनगंज सहित आसपास के एरिया में बैनर पोस्टर लगाना चाहिए। मीडिया के माध्यम से प्रेस कॉन्फ्रेंस कर लोगों से आग्रह करना चाहिए कि अधिक से अधिक लोग मेला में भाग ले। मेला का टेंडर हम लें या कोई और हमारे लिए मेला एक महीने का है, हम प्रॉफिट या लॉस कमाकर बाहर निकल जाएंगे, लेकिन यह मेला कैंपस प्रशासन का है। जोकि किशनगंज शहर का एक धरोहर है। वे हमसे सवाल करते हुए पूछते हैं कि आप ही बताइए बिहार में अब मेला बचा कहां है, ले देकर दो या चार मेला पूरे बिहार में लगता है, हाजीपुर का सोनपुर मेला, राजगीर का मलमास मेला जो बाद एक धार्मिक आयोजन है, जो हर चार साल के लगता है और किशनगंज का खगड़ा मेला।


बबलू जी कहते हैं कि राजगीर का मेला इसलिए फेमस है क्योंकि बिहार सरकार के टूरिस्ट विभाग ने वहां जू सफारी और ग्लास ब्रिज का निर्माण कर दिया है। इसलिए जब कभी वहां मेले का आयोजन होता है तो लोग ग्लास ब्रिज देखने के लिए भी वहां जाते हैं। अगर बिहार सरकार द्वारा हमारे किशनगंज जिले में भी कुछ ऐसा कर दिया जाए तो विश्वास कीजिए कि यहां पर्यटकों की कोई कमी नहीं रहेगी। वैसे भी किशनगंज को चेरापूंजी या बिहार का स्विट्जरलैंड कहा जाता है। किशनगंज से नेपाल मुश्किल से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां से बांग्लादेश और भूटान भी काफी नजदीक है। पड़ोसी राज्य बंगाल और असम भी बहुत दूर नहीं है। दार्जिलिंग भी तो यहां से काफी नजदीक है। सोनपुर मेला प्रशासन के पास जितनी सरकारी जमीन है उससे अधिक हमारे पास है। सोनपुर मेला में जिस तरह से जिला प्रशासन और बिहार सरकार सहयोग करती है अगर वह हमारे मेले में किया जाए तो विश्वास कीजिए किशनगंज का यह मेला भारत के टॉप 10 मेला में शामिल हो जाएगा। उनका विश्वास है कि बहुत जल्द बिहार सरकार द्वारा इस मेले को राजकीय मेला का दर्जा दिया जाएगा। हालाकि उनकी शिकायत है कि सांसद विधायक सहित राजनीतिक दल के सभी नेवा लोग इस मेला रूपी धरोहर को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं।


क्या कहते हैं नवाब के वंशज
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हमें लगा कि जिस नवाब साहब ने इस मेले का आयोजन किया था उनके वंशजों से भी मिलना चाहिए और इसलिए जब हम उनकी कोठी पर पहुंचे तो वे वहां नहीं थे। हमें बताया गया कि उनके वंशज अभी शहर से बाहर रह रहे हैं। फोन पर संपर्क करने के बाद सैयद मोहम्मद रजा ने बताया कि हमारे लिए यह गर्व की बात है कि हमारे पूर्वजों के द्वारा इस मेले का आयोजन किया जाता रहा है। साल 1882 में तत्कालीन नवाब सैयद अता हुसैन साहब ने पूर्णिया के तत्कालीन अंग्रेज डीएम ए विक्स के सहयोग से इस मेले का शुभारंभ किया था। उस समय किशनगंज के एसडीओ राय बहादुर दास दत्ता हुआ करते थे। अब इस मेले में हमारे परिवार का कोई हाथ नहीं होता। सब कुछ जिला प्रशासन के जिम्मे है। अब तो जो करना है बिहार सरकार और जिला प्रशासन को ही करना है। राजकीय मेले का दर्जा मिल जाता है तो इतना तय हो जाएगा कि इस मेले का आयोजन हमेशा के लिए होते रहेगा।


क्या कहते हैं किशनगंज नगर परिषद के अध्यक्ष
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मेला के बारे में किशनगंज नगर परिषद के अध्यक्ष इंद्रदेव पासवान का कहना है कि राजकीय मेला दर्जा को लेकर जिला प्रशासन झूठ बोल रही है। उद्घाटन के दिन भूमि राजस्व मंत्री दिलीप जायसवाल जी का साफ कहना था कि अभी तक उनके पास यह मामला आया ही नहीं है। सवाल उठता है कि अगर जिला अधिकारी ऑफिस से इस बाबत प्रस्ताव गया है तो फिर फाइल मंत्री जी के पास अब तक क्यों नहीं पहुंचा। जिला प्रशासन और बिहार सरकार को सिर्फ राजस्व से मतलब है, इसके विकास से उनका कोई लेना-देना नहीं है। मेला कैंपस को अतिक्रमित किया जा रहा है।


पिछले साल हमने स्थानीय युवकों की मदद से अतिक्रमण मुक्त करवाया था लेकिन जिला प्रशासन की ओर से देख-रेख नहीं किए जाने के बाद से पुनः इसको अतिक्रमित कर लिया गया है। कुछ भाग से गड्डा खोदकर लोगों ने मिट्टी भी निकाल लिया है। अब तो सरकार ने भी इस कैंपस में छोटा पावर स्टेशन बनाने का फैसला लिया है। मान कर चलिए की इस निर्माण के बाद से मेला कैंपस को बर्बाद कर दिया जाएगा। कुल मिलाकर कहा जाए तो पावर स्टेशन बनने के बाद पहले जितनी जमीन मेले के लिए उपलब्ध होती थी उसमें कमी आएगी।


मेला कैंपस नसेरियों का अड्डा बन चुका है। उड़ता पंजाब बना दिया गया है। स्मैक का अझ बन चुका है। हम लोगों ने कई बार जिला प्रशासन से आग्रह किया कि नगर पालिका अधिनियम 2007 की धारा 100 तहत इस मेला कैंपस जमीन पर किशनगंज नगर परिषद का अधिकार बनता है। इस बाबत हम लोगों ने पटना हाई कोर्ट में केस भी किया था। फैसला हमारे पक्ष में आया है, लेकिन अब तक जिला प्रशासन द्वारा मेला कैंपस को हैंडओभर करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है। हम लोगों ने हाई कोर्ट में अवमानना मामले में एक रिट याचिका दायर की है जिसकी सुनवाई चल रही है। अगर मेला कैंपस नगर परिषद को सौंप दिया जाता है तो इसके रखरखाव और विकास करने के लिए हमारी ओर से हर संभव प्रयास किया जाएगा। राजकीय मेले का दर्जा मिल सके इसके लिए भी हम लोग संघर्ष करेंगे।


खगड़ा मेले में हमें क्या कुछ देखने को मिला

खगड़ा मेला परिसर में प्रवेश करने से पहले ही एक सेल्फी प्वाइंट बना हुआ है। जहां मेला घूमने के लिए आने वाले युवाओं की काफी भीड़ रहती है। जो लोग यहां आते हैं कम से कम सेल्फी लेना नहीं भूलते। मेल परिसर में प्रवेश करते ही रास्ते में दोनों ओर एक से एक दुकानें सज-धज कर तैयार है और सभी दुकानों पर ग्राहकों की भीड़ है। कहीं चिरयानी की दुकान ती कहीं समोसा चाट की दुकान। कहीं अचार बाला तो कहीं हरएक माल, कहीं पर बैग वाला तो कहीं पर आइसक्रीम वाला, कहीं पर लहासा मार्केट की तरह कपड़े और कंबल बेचने वाला तो कहीं पर गोदरेज और सोफा सेट बेचने वाला, झाल मुरही बेचने वालों की भी संख्या काफी ज्यादा देखने को मिली। बड़े-बड़े झूले लगे थे, कहीं पर जलपरी और चित्रहार का शो आयोजित किया जा रहा था। युवाओं को रिझाने के लिए थिएटर वालों को भी बुलाया गया है। छोटे-छोटे बच्चों के लिए झूला है, क्लास पांच से लेकर 8 तक के बीच पढ़ने वालों के लिए हेलीकॉप्टर है। जिन लड़के लड़कियों को झूला झूलने में डर नहीं लगता उनके लिए राम हिलोरा और सुनामी वाला झूला भी है।


झूले की कीमत ₹50 से लेकर ₹100 तक की है। ब्रेक डांस झूला भी है। लोग फोटो और वीडियो बना सके इसके लिए सेल्फी प्वाइंट और फोटो स्टूडियो भी खोला गया है। हाथी के कान जैसा बड़ा बड़ा पराठा भी बनाकर बेचा जाता है जो ₹120 किलो है। क्या बताएं और किन-किन चीजों का नाम गिनाएं। कुल मिलाकर आप कह सकते हैं कि वह सब कुछयहां पर उपलब्ध था जो आपको सोनपुर मेला में देखने को मिलता है। हां एक अंतर जरूर था। सोनपुर मेले में कभी कभार हाथी घोड़े सहित अन्य जानवरों की प्रदर्शनी भी होती है जो यहां हमें देखने को नहीं मिला। मेला परिसर में जिस तरह से दुकानदारों ने अपने-अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए स्टॉल लगाया है उसे तरह से मिला परिसर में हमें संतोष जनक भीड़ देखने को नहीं मिला।


एक संत के कहने पर शुरू हुआ था मेला

हमने सवाल किया कि आखिर इस मेले को आयोजित करने का आईडिया उनके दिमाग में आया कैसे। जवाब बेहद खास और दिलचस्प था। नवाब साहब अपनी कोठी से कभी-कभी शहर में घूमने के लिए निकला करते थे। एक दिन की बात है कि एक गरीब संत से बीच रास्ते में नवाब साहब की मुलाकात होती है। वह आदमी एक बादाम पेड़ के नीचे बैठा हुआ था, अब उस तरह का बादाम का पेड़ किशनगंज में देखने को नहीं मिलता है, और वह आदमी अपना भोजन पका रहा था। नवाब साहब को लगा होगा की आखिरीकार यह अनजान आदमी कौन है और यहां क्या कर रहा है, इस कारण वे वहां पर रुक गए।


टोकने पर संत ने उन्हें गुस्से से झिड़क दिया और कहां जहां जा रहे थे वहां जाओ, अपना काम करो। नवाब साहब को गुस्से के साथ-साथ इस बात को लेकर आश्चर्य हुआ कि यह आदमी मुझे नहीं पहचान रहा। नवाब साहब इसके बाद भी गए नहीं और संत से बार-बार पूछ रहे थे कि आप कौन हैं। क्या आपको किसी तरह की मदद चाहिए। कहा जाता है कि उस संत ने कहा कि लगता है तुम बड़े आदमी हो। तुम्हें यहां पर मेले का आयोजन करवाना चाहिए। उसे संत का यह भी कहना था कि इस मेले का आयोजन जनहित में होना चाहिए।


मेला को फेमस बनाने के लिए नवाब साहब मेले से 5-6 महीने पहले ही पत्राचार करना आरंभकर दिया करते थे और अलग-अलग देशों से व्यापारियों को बुलाने के लिए आमंत्रण पत्र भेजते थे। उस समय रेल की भी सुविधा नहीं थी। इस मेले में शिक्षा और खेती-बाड़ी को लेकर जमकर प्रचार किया जाता था।


इंसान स्कूल के स्वर्गीय सैयद हुसैन साहब जब इस मेला में पहली बार आए तो वह बहुत प्रभावित हुए। भीड़ देखकर उनके मन में आइडिया आया कि यहां पर काम करना चाहिए। यहां तो अपने आप लोगों की जमात है। खगड़ा मेला के आयोजन को लेकर कोई निश्चित समय तय नहीं था लेकिन इतना तय था कि ठंड के महीने में इस मेले का आयोजन होना है।


हुलास चंद्र लाहोटी को याद करते हुए गनी सब कहते हैं की बाद के दिनों में वह एमएलसी बने लेकिन उन्होंने भी कई बार मेले का आयोजन करवाया और एमएलसी बनने के बाद स्वागत द्वार का निर्माण करवाया, जो दिखने में चारमीनार जैसा था। उस चारमीनार को प्रशासन द्वारा यह कहते हुए तोड़ दिया गया कि अब इसका दोबारा सौंदर्याकरण किया जाएगा। लाहोटी साहब से एक बार हम लोगों ने पूछा था कि आप एमएलसी होकर इस मेले का आयोजन कर रहे हैं तो वह भावुक होते हुए कहने लगे थे कि यह मेला किशनगंज की पहचान है और इसे हर हाल में जिंदा रखना है, मरने नहीं देना है। एक तरह से कहा जाए तो उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं था।



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