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शिक्षा के भगवाकरण पर सोनिया के लेख के निहितार्थ

  • Writer: MOBASSHIR AHMAD
    MOBASSHIR AHMAD
  • May 23
  • 4 min read

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डॉ चनस्यान बाटल


आजाद तो हम 1947 में हो गए थे और 26 जनवरी 1950 को एक गणतांत्रिक राष्ट्र भी बन गए लेकिन शैक्षिक दृष्टि से देखे तो अगले 18 साल तक हम बिना किसी शिक्षा नीति के ही चलते रहे यानी लॉर्ड मैकाले के नियम कानून ही 1968 तक ढोते रहे।


पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 में डॉ. के. नागराजा समिति की सिफारिशों के आधार पर आई। फिर 18 साल यही नीति चलती रही और 1986 में राजीव गांधी सरकार नई शिक्षा नीति लेकर आई 1992 में नरसिम्हा राव सरकार ने इसमें संशोधन किए। 34 वर्षों के बाद नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 29 जुलाई 2020 को नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा शिक्षा प्रणाली में बड़े बदलाव के लक्ष्य के साथ लाई गई।


वैसे 1986 के शिक्षा नीति के प्रपत्रों को देखा जाए तो नई नीति उनसे बहुत ज्यादा अलग नहीं है, फिर भी बदलती हुई आवश्यकताओं एवं परिवेश के अनुसार कई नए विचार इसमें दिखाई दिए। तत्कालीन शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के नेतृत्व में बनी शिक्षा नीति की जहां सरकारी तंत्र ने भरपूर प्रशंसा की, वहीं विपक्ष ने इसमें छेद ही छेद ढूंढने का काम किया हालांकि दोनों ही पक्ष अतिवाद के शिकार रहे।


एन सी एफ 2020 पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा हस्त कौशल एवं दक्षता को अधिक महत्व देता है, साथ ही साथ बच्चों के विद्यालय में ही तकनीकी प्रशिक्षण पर भी जोर है। इसमें सरकारी स्तर पर पहली बार पूर्व प्राथमिक स्तर की शिक्षा की भी व्यवस्था की गई है हालांकि यह व्यवस्था निजी क्षेत्र में बहुत पहले से चल रही है।

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इस शिक्षा नीति को लेकर कई बिंदुओं पर विवाद पहले से ही मौजूद हैं जिनमें मुख्य रूप से भाषा नीति मुख्य है। इस नीति में जिभाषा फामूर्ला लागू करने की बात कही गई है जिसमें हिंदी, अंग्रेजी और एक क्षेत्रीय भाषा को पढ़ाना शामिल है। दक्षिण भारत और गैर-हिंदी भाषी राज्यों ने इसे हिंदी थोपने का प्रयास बताया है हालांकि सरकार ने स्पष्ट किया है कि किसी भाषा को अनिवार्य नहीं बनाया जाएगा और राज्यों को भाषा चयन की स्वतंत्रता होगी।


मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा भी विवाद का विषय है। नई नीति के अनुसार कक्षा 5 (या यथासंभव कक्षा ४) तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा का प्रावधान है। यह ग्रामीण क्षेत्रों के लिए लाभकारी हो सकता है लेकिन अग्रजी माध्यम की बढ़ती माँग के कारण यह गैर-व्यावहारिक भी है। इस बारे में मुख्य चिंता यह है कि इससे निजी विद्यालयों और उच्च शिक्षा में अंग्रेजी की तैयारी प्रभावित हो सकती है।


शिक्षा नीति 2020 में पुरानी 10-2 शिक्षा प्रणाली को बदल कर 5+3+3+4 संरचना लागू करने का निर्णय लिया गया जिसमें फाउंडेशनल स्टेज (3-8 वर्ष), प्रिपरेटरी स्टेज (8-11 वर्ष), मिडिल स्टेज (11-14 वर्ष), और सेकेंडरी स्टेज (14-18 वर्ष) शामिल है। इस नीति के आलोचकों का मानना है कि इससे स्कूलों में अतिरिक्त संरचनात्मक बदलाव की आवश्यकता होगी जो बहुत चुनौतीपूर्ण है। इस शिक्षा नीति में बोर्ड परीक्षाओं को कम महत्वपूर्ण बनाने और 'हाई-स्टेक' परीक्षा न रहने देने की बात कही गई जिससे कुछ विशेषज्ञों ने चिंता जताई कि इससे छात्रों की प्रतिस्पर्धात्मकता और उच्च शिक्षा में चयन प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है।

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उच्च शिक्षा में विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति देने पर भी कुछ लोगों को आशंका है कि इससे भारतीय संस्थानों को नुकसान होगा और शिक्षा का व्यवसायीकरण बढ़ेगा। नई नीति में छात्रों को किसी भी समय कोर्स छोड़ने और बाद में फिर से जॉइन करने की सुविधा दी गई है। शिक्षाविदों का मानना है कि इससे शिक्षा के प्रति गंभीरता कम होगी और ड्रॉपआउट रेट बढ़ सकता है। उच्च शिक्षा संस्थानों को अधिक स्वायत्तता देने और निजी भागीदारी बढ़ाने पर भी आशंका उठी है कि इससे शिक्षा का निजीकरण बढ़ेगा और उच्च शिक्षा और भी महंगी हो जाएगी।


हालांकि शिक्षा नीति 2020 में कई सकारात्मक बदलाव लाने की कोशिश भी की गई है लेकिन इसके कुछ प्रावधानों को लेकर विरोध अब भी जारी है और अब तो यह विरोध राजनीतिक शीर्ष पर पहुंच गया है. इसी विरोधाभास को रेखांकित करने के लिए कांग्रेस की शीर्ष नेता सोनिया गांधी ने दैनिक हिंदू में अपने लेख में शिक्षा नीति को लेकर सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। सोनिया गांधी ने अपने लेख में इसे जमीनी हकीकत से दूर बताते हुए इस नीति में सार्वजनिक परामर्श और व्यापक विचार-विमर्श का अभाव भी बताया है। सोनिया नई शिक्षा नीति में वंचित सके। और हाशिए पर खड़े वर्गों की शिक्षा को लेकर ठोस योजना और सामाजिक न्याय और समानता के मूल्यों की अवहेलना का आरोप भी लग रही हैं। उन के अनुसार यह नीति निजीकरण को बढ़ावा देगी जिससे आम नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई होगी।


शिक्षा नीति 2020 में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने पर सोनिया गांधी का कहना है कि मातृभाषा में शिक्षा देना महत्वपूर्ण तो है लेकिन यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि सभी भाषाओं के छात्रों को समान अवसर मिलें और वे वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार हों। शिक्षा नीति के तहत विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों को दी जाने वाली स्वायत्तता के संदर्भ में भी सोनिया की चिंता है कि इससे शिक्षा का केंद्रीकरण हो सकता है, जिससे राज्यों की भूमिका सीमित हो जाएगी।

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सोनिया गांधी ने शिक्षा के क्षेत्र में बजट के समुचित आवंटन और शिक्षकों की स्थिति को मजबूत करने की मांग के साथ शिक्षकों की भर्ती, प्रशिक्षण और वेतनमान पर विशेष ध्यान की जरूरत भी बताई है। उन्होंने इस नीति को अधिक समावेशी, न्यायसंगत और जनहितैषी बनाने की अपील की है ताकि सभी वर्गों के छात्रों को समान अवसर मिल एक नजर से देखने पर सोनिया गांधी की कुछ चिंताएं जायज नजर आती हैं है लेकिन दूसरा यथार्थ यह भी है कि उनकी मंशा साफ तौर पर शिक्षा के मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने की है। कांग्रेस का इतिहास रहा है कि शिक्षा को सदैव उसने उपेक्षित ही रखा है चाहे बजट का मामला हो या शिक्षा नीति बनाने का अन्यथा जिस तरह हर 10 वर्ष में जनगणना होती है या पे कमीशन बैठता है, वैसे ही शिक्षा नीति में भी बदलाव की जरूरत होती है लेकिन अपने शासनकाल में कांग्रेस ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।


यदि वर्तमान शिक्षा नीति को गौर से देखा जाए तो यह 1986 की शिक्षा नीति से कोई बहुत अधिक अलग नहीं है लेकिन तब से 2020 तक सोनिया गांधी को उन शिक्षा नीतियों में कुछ भी गलत नजर नहीं आया।


इसमें तो दो राय नहीं कि सोनिया गांधी का यह लेख राजनीतिक उद्देश्य हासिल करने का उपक्रम मात्र है लेकिन साथ ही साथ यह भी सच है कि समय के साथ शिक्षा नीति में बदलाव की जरूरत तो होगी ही और वर्तमान शिक्षा नीति को भी हम एकदम पूर्ण या समग्र नहीं मान सकते।

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