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'सूखी नदी बहते तटबंध

  • Writer: MOBASSHIR AHMAD
    MOBASSHIR AHMAD
  • Apr 16
  • 4 min read

जीवन के हर मोड़ पर कोई न कोई मिलता है। कभी-कभी जीवन के बहाव में हम इतने आगे निकल जाते हैं, फिर चाहकर भी किसी से नहीं मिल पाते हैं। यह जीवन रूपी नदी की धारा कहीं तेज, कहीं धीमी गत्ति से बहती है। यह धारा रुकती नहीं है, तटबंध जो एक दूसरे को देखते हैं, मिलना चाहते हैं पर, मिल नहीं पाते हैं। जीवन की इसी धारा में हम सभी बहते चले जाते हैं, रुकने का नाम ही नहीं लेते हैं। कहीं प्रकृति ने बांधा, कहीं राजाज्ञा से बांधने पर भी किसी ने किसी तरह से कृत्रिम, अकृत्रिम रूप से बाहर निकल आना है, या सूखकर अस्तित्व को ही मिटा देना है; बस यही जिंदगी है, जीवन का ठिकाना है। अपर्णा भी एक तेज रफ्तार नदी की धारा थी। बचपन में मां बाप की गोद में चहकती महकती, खेलती कूदती बहती जा रही थी। उसने किशोरी के रूप में कभी इस डाल पर, कभी उस डाल पर, कभी इस फूल पर कभी उस फूल पर खेलती कूदती बहती हुई चली जा रही थी।


अपर्णा के तटबंध मजबूत थे, मां बाप के रूप में अडिग तटबंध इस भ्रम में थे कि, यह नदी हमारे पास है। यह उनका भ्रम मात्र था। अपर्णा तो बहती हुई बहुत दूर निकल गई थी। एक दिन अपर्णा ने अपने एक किनारे, तटबंध, घाट पर शिवा से मिली थी। शिवा को भी भ्रम था कि, यह अपणों मेरे करीब है। मैं इसमें नहाऊंगा, गोते लगाऊंगा, मेरी रूह को ठंडक मिलेगी। मैं इसमें डूबकर अपने मैले शरीर को साफ करूंगा। रोज ही तो शिया आकर उससे मिलने के भ्रम में उसके किनारे बैठ जाया करता था। न जाने कब शिवा को अपर्णा से प्रेम हो गया था। शिवा ने एक तटबंध से कहा, 'मैं अपर्णा को अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहता हूं!'


अपर्णा तो इस प्रेम प्यार के चक्कर में पढ़कर अपना बहाव रोकने के लिए तैयार नहीं थी। यह प्रेम भी बड़ा अलबेला होता है। अपर्णा के

दूसरे तटबंध पर आकर बैठता भोला उसे अच्छा लगने लगा था। वह भोला के लिए अपना बहाव रोकने को तैयार थी। भोला तो बहती नदी अपर्णा को देखते रहने का आदी था। प्रेम प्यार से अनभिज्ञ था। आखिर दूसरे तटबंध ने अपर्णा को भोला के साथ बांध दिया था। अपर्णा का बहाव यहीं थम गया था। एक हल्का रिसाव उसके होने का प्रमाण बचा था बस। समय का मोड़ अपर्णा की गति को कम कर दिया था लेकिन बहाव रुका नहीं था। अपर्णा अपने हिसाब से रास्ता बनाने की क्षमता खो चुकी थी।


शिवा अभी भी अपर्णा से प्रेम करता था। प्रेम त्याग का नाम है, प्रेम समर्पण का नाम है। प्रेम में हर कुरूप भी सुंदर हो जाता है, जिससे प्यार हो जाता है। शिवा अभी भी दूसरे तटबंध, किनारे पर आकर बैठता है; रिसते हुए बहाव से नहाने की कोशिश करता है।

प्रदूषित, गंदी हो गई थी अपर्णा को रिसती धारा; फिर भी शिवा उसके पास आता था! शिवा को उसके साथी संगी परिजन सभी ने समझाया था कि, 'अपर्णा या तो बंधकर अपना अस्तित्व खो चुकी है, या वह धीरे-धीरे रिसते, बहते तुझसे दूर हो गई है। तेरा अपर्णा से लगाव पाप है, प्रदुषित अपर्णा को छूने से तू रोगी होकर अपने आपको क्यों नष्ट करने पर तुला है!' शिवा हंसकर कहता, 'प्रेम कहां देखता है अच्छा बुरा, प्रेम तो हो जाता है, हो सकता है मेरे द्वारा किया गया यह अपणां के प्रति प्रेम पाप हो; मेरे लिए तो वह सबसे बड़ा पुण्य, सबसे बड़ी तपस्या है!


कौन कहता है तटबंध थकते नहीं हैं। समय के थपेड़ो से सबको थकना पड़ता है। एक दिन ऐसा भी आया कि, रिश्तों के मजबूत बांध से बंधकर अपर्णा का रिसाव बंद हो गया था। अपर्णा पूरी तरह से सूख गई थी। भोला को भ्रम है कि, अपर्णा के साथ वह बह रहा है। भोला बहते तटबंध का भ्रम पाल कर कब तक अस्तित्व में रहेगा? उसका अस्तित्व वो अपर्णा थी जो सूख चुकी थी। भोला का भ्रम स्वार्थी था। स्वार्थ का भ्रम कब तक चलेगा एक दिन वह खुद को पहचान नहीं पाएगा। यही सिलसिला चलता रहता है, चलता रहेगा। भोला की पहचान तो अपर्णा थी। शिवा का त्याग, पहचान भी अपर्णा ही थी।


शिवा तो निश्छल प्रेमी था। शिवा का भ्रम वाजिब था क्योंकि, वह तो शुरू से भ्रम में था। अपर्णा के रिसाव को अपर्णा का होना मान रहा था। जबकि सिलसिला चलता रहता है, तटबंध पीछे छूटते रहते हैं। जहां भी अपर्णा गई होगी रोकने का भ्रम पाला गया होगा। अपर्णा को अनेक नामों से उपयोग में लागा गया होगा जो एक भ्रम मात्र है। सूखी अपर्णा के दोनों तटबंध भ्रम पालकर कब वक रहेंगे; एक दिन उनका भी अस्तित्व खत्म हो जाएगा। सूखी नदी बहते तटबंध भ्रम है, भ्रम के अलावा कुछ भी नहीं है।


यही प्रकृति का बहाव है, प्रकृति का सिलसिला है। एक दिन अपर्णा की तरह सभी को सूखना है, कोई जल्दी कोई देर से।

जिसे कोई बांध नहीं सकता, सिर्फ भ्रम पालते हैं। रिसते रिसते सूखना होगा। बंधने से श्रोत खत्म हो जाते हैं। समय के साथ भ्रम पैदा होता रहता है। एक दिन नदी सूख जाती है, तटबंध बह जाते हैं। अपर्णा का अस्तित्व ही इतनी दूर का, इतने दिनों का था। कुछ इन बांधों में नहीं बंधते हैं, अपने प्रेमी सागर से मिलने पहुंच जाते हैं। विरले ही होंगे, विरली अपर्णा होंगी जो सागर तक पहुंच पाती हैं, वरना अधिकतर बीच में ही सूख जाती हैं, खत्म हो जाती हैं।


अगाध सागर से प्रेम करने वाले, अगाध सागर से मिलने वालों का भी अस्तित्व खत्म हो जाता है; मिल जाने से, समाहित हो जाने से खारे सागर का अस्तित्व रहता है मिलने वाली नदी का नहीं!

अपर्णा अब नहीं है। नदी सूख गई, तटबंध बह गए। अपर्णा जो कभी दुर्गम इलाकों, कठोर पहाड़ों को भेदकर दौड़ने की शक्ति से भरपूर थी; समय के थपेड़ो से थककर चूर हो गई, हार गई थी।


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